________________
युक्त अजेय वादियों, वीणावादन करते करते तीर्थंकरनामोपार्जन (पुण्योपार्जन) करनेवाले कलाकार उपासकों कामदेवके गृहमें (वेश्याके घर) वास करके उसके (कामके) अस्तित्वको ही धराशायी करनेवाले आदर्श-कामविजेता ब्रह्मचारियों; नृत्य करते या नाटकके पात्राभिनय करते करते केवलज्ञान संप्राप्त करनेवाले कलाविज्ञों; भोजन करते, शृंगार करते या लग्न मंडपमें विवाह करते करते केलज्ञान हाँसिल करनेवाले निर्मोहियों पलने में झूलते झूलते ग्यारह अंगका अभ्यास करनेवाले अद्भुत प्रज्ञावान बालकों की पंक्तियाँ। ५५.
इनके द्वारा जिनेश्वरोपदिष्ट विविध प्रकारसे धर्मकी आराधना प्रवाहित हुई-यथा
एकविध धर्म- स्यात् से अस्यात् (आंशिक मत्यादि ज्ञानसे केवलज्ञान-केवलदर्शनरूप)की आराधना और अनेकान्तसे एकान्तकी उपासना, अर्थात् वीतराग भावसे एकमात्र कर्मक्षयके लक्ष्यरूप एकान्तिक मोक्षमार्गकी आराधना-साधना। द्विविधधर्म- (१) श्रुतधर्म-(२) चारित्र धर्म (i) श्रुतधर्म--श्रुतधर्ममें रत्नत्रयीके दो अंग समाविष्ट होते है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान। मनुष्यादि चार गति, धर्मास्तिकायादि षट् द्रव्य, एकेन्द्रियादि षट् काय, कृष्णादि षट् लेश्या, वैशेषिकादि षट् दर्शन, जीवाजीवादि नवतत्त्व, अरिहंतादि नवपद, चौदह गुण स्थानक, असंख्य योजन प्रमाण चौदह राजलोक एवं अनंत अलोकाकाशका स्वरूप, आत्मविज्ञान एवं कर्मविज्ञान, जीव विज्ञान एवं पुद्गलादि अजीव विज्ञान, पदार्थ विज्ञान और शरीर विज्ञान आयुर्वेद एवं ज्योतिष, इतिहास-भूगोल-गणित, राजनीति एवं समाजनीति आदि अनेकानेक द्रव्यानुयोग और गणितानुयोगको सरल व स्पष्ट रूपेण समझानेवाला बोधप्रद कथानुयोगका निरूपण-जिसे प्रत्यक्ष एवं परोक्षादि प्रमाण; ‘स्यात्' युक्त सप्तभंगी-स्याद्वाद, सप्तनय भंग समन्वित अनेकान्तवाद, नामादि चार निक्षेपासे स्पष्ट किया गया है। इसे सम्यक् रूपसे ज्ञात करना यह सम्यक ज्ञान और यही ज्ञात किये . ज्ञानको संपूर्णतया सम्यक् श्रद्धासे हृदयंगम करना, आत्मसात करना-निःशंक सद्दहणा करना यह है सम्यक दर्शन ।
(ii) चरित्रधर्म-चारित्र धर्मके दो भेद है-सर्वविरति (साधुधर्म), देशविरति (श्रावक धर्म)। सत्रह भेदसे संयम; दशविध यतिधर्म; (केवल उदर पूार्थ-भ्रमर रसग्रहण-वृत्तिसदृश) दोष रहित आहार गवेषणा; नवकल्पी विहार; केशलुंचन; धर्मोपदेश प्रदान; प्रतिदिन पाँच प्रहर (१५ घटें) आत्मबोधकारक, कर्म निर्जरा प्रधान स्वाध्याय; स्वावलंबन; सहनशीलता; स्वात्माभिमुखताके सहारे स्वपरोपकारार्थ एवं अनुभवज्ञान-विभिन्न भाषाज्ञानादि उपार्जनार्थ तीर्थाटन करते हुए क्षेत्र-स्थान या व्यक्तिके प्रति ममत्व भावसे पर होकर आत्मगंगाके निर्मलत्व हेतु बहते पानी सदृश पैदल विहार करना; विशिष्ट दिनचर्या; मृत्युभी महोत्सवके समान अर्थात् दैहिक अवसानको 'जीर्ण वस्त्र त्याग' सदृश अथवा 'नूतन वस्त्र धरने' समान आनंद-मंगल अवसर माना जाय-इन लक्षणों युक्त-पापसे पूर्णतया निर्वत्ति रूप साध धर्म है । पाप प्रवृतिसे आंशिक विरमण रूप आत्म कल्याणकारी श्रावकधर्म-देशविरति धर्म होता है। श्रावक धर्मके दो भेद-A. श्रुतधर्ममें संपूर्ण श्रद्धावान् लेकिन अविरति कर्मोदय(चारित्र मोहनीय
(33)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org