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तेजोलेश्या सिद्धिका, आपके छद्मस्थकालमें अपने आप शिष्यत्व अंगीकार करलेनेवाले 'गोशाला' ने, आप पर ही क्रोधमें आकर प्रयोग किया, जिससे आपको छ मास पर्यंत खून मिश्रित शौच और पित्तज्वरकी पीडा हुई। एक आश्चर्यकारी घटना और भी घटित हुई। स्वर्गलोकके देव अपने मूल रूपमें कभी तिच्छालोकमें नहीं आते, लेकिन, कौशाम्बी नगरीकी पर्षदामें सूर्य-चंद्र-मूल (शाश्वत) विमानमें आये और धर्मदेशना श्रवण की।
___प्रभु वीरके शासनमें ही गोशालक, जमालि आदि निलव'-प्रत्यनीक हुए, जिन्होंने सर्वज्ञ (वीतराग)-वाणी विरुद्ध मनस्वी-मिथ्या-काल्पनिक धर्म प्ररूपणा-प्रचार-प्रसार अपनी कुबुद्धिकी मिथ्या धारणा पर निर्भर होकर, मिथ्यात्व कर्मके उदयसे किया। निर्वाणकाल-इस प्रकार तीस साल गृहवास सार्ध बारह वर्ष छद्मस्थावस्था-साधनाकाल ओर सार्ध उनतीस वर्ष के वली पर्याय-कुल बहत्तर सालकी आयु संपन्न करके सर्व तीर्थंकर सदृश बादर और सूक्ष्म तीनों योग-निरोध ओर शैलेशीकरण करके, 'अव्यभिचारी समुच्छिन्न किया' नामक शुकल ध्यानके चतुर्थ पाद पर स्थित (सर्व कर्मक्षयसे) यथात्मस्वभाव, ऋजुगतिसे उर्ध्वगमन करके कार्तिक वदि अमावास्याकी अर्धरात्री व्यतीत होने पर सर्वार्थसिद्ध मुहूर्त में चंद्रका स्वाति नक्षत्रमें योग प्राप्त होते ही निर्जल दो उपवास युक्त, पर्यंकासन स्थित, पावापुरीमें हस्तिपाल राजनकी सभामें अठारह देशके राजाओं सहित बारह पर्षदा मध्य अखंड सोलह प्रहर (४८ घंटे) तक निरन्तर देशना प्रवाह प्रवाहित करते करते चरम तीर्थपति श्री महावीर स्वामीने परम पद की प्राप्ति की-सिद्धशिला पर सादि अनंत स्थिति प्राप्त की। ६४ भगवान महावीरका शासन (सिद्धान्त एवं व्यवहारका समन्वय)- भगवान महावीरने आचारमें अहिंसा (उपलक्षणसे पंचमहाव्रत) ओर विचारमें अनेकान्त, स्याद्वाद और सापेक्षवादकी अनुपम एवं अद्वितीय भेंट विश्वको दी है। विश्व वत्सल परमात्मा प्ररूपित यह अनूठी धर्मदेनको आपके अनुयायियों द्वारा ज्ञान-ध्यान, तप, जप, साधना-उपासना, निःस्पृहता-परोपकारिता-सरलता, तर्क-प्राविण्यादि द्वारा ज्ञात करके, अनुप्रेक्षित करके; अनुभूत करके; और अमारि प्रवर्तन, अनुकंपादि क्रिया स्वरूप एवं त्यागवैराव्यके उपदेश स्वरूप अन्यको ज्ञात, अनुप्रेक्षित, अनुभूत करवाके यथोचित-यथाशक्ति सातक्षेत्रकीजो रत्नत्रयीका प्रतिनिधित्व करते हैं-पुष्टि की। परिणामतः जैनधर्म अद्यापि पर्यंत संपूर्ण-अखंड़अक्षण्ण-अपरिवर्तित यथास्थित कर्मनिर्जराके हेतुभूत सिद्ध हुआ है ।
जिन शासनके स्वर्णाक्षरी पृष्ठों पर दृष्टि स्थिर करने पर दृष्टिपथमें उतर आती हैं-अपनी दिव्य प्रतिभासे पत्थरको सुवर्णमय बनानेवाले पूर्वाचार्यों; न्यायशास्त्रके उत्तमोत्तम एवं अनन्य ग्रन्थों (द्वादशार नयचक्रादि जैसे) के रचयिता सूक्ष्म बुद्धिमान तार्किकाचार्यों; एक श्लोकके अष्टलक्ष विभिन्न अर्थ होते हों ऐसे अष्टलक्षी और जिनमें एक श्लोकके सात अर्थ करके सात तीर्थंकरोंके जीवन चरित्रका निरूपण होता हों ऐसे सप्तसंधान एवं द्वयाश्रय काव्योंके रचयिता श्रेष्ठ कवियों; वादमें वाक्यका प्रारम्भ स्वरसे न हों-ऐसी विचित्र शर्तों के साथ वाद करनेवाले असाधारण बुद्धि वैभव
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