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सुधर्मा स्वामीके पास आयी जो उन्होंने केवलज्ञान प्राप्ति तक निभायी। केवली पर्यायमें जम्बूस्वामीको अपना उत्तराधिकारी बनाकर आयुष्य पूर्ण होते ही मोक्ष पाया। उन्हींकी परम्परा अद्यापि अक्षुण्ण रूपसे चली आ रही है। श्री सधर्मा स्वामी---वैशाली के कोल्लाग सनिवेश के अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण पिता धम्मिल और माता भद्दिलाके घर वीर सं.-पूर्व ८०में उनका जन्म हुआ। अप्रतिम मेधा और पारदर्शी प्रज्ञा के स्वामी, विनम्र और विनयी सत्य शोधकने परमात्माकी वाणीमें सत्यका चमकार पाया और तीस वर्षकी आयुमें शिष्यत्व स्वीकार किया-भगवंतके अंतेवासी बनकर रहे। बानवे वर्षकी आयुमें केवलज्ञान प्राप्त करके वी.सं. २०में मोक्ष प्राप्त किया। बीज बुद्धिके स्वामी सुधर्माजीने दीक्षोपरान्त द्वादशांगी और चौदह पूर्वकी रचना करके गणधर पद प्राप्त किया था एवं अपने आयुष्यकी परिसमाप्ति पूर्वही जम्बूस्वामीको उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। श्री जम्बू स्वामी--- राजगृहीके काश्यप गोत्रीय वैश्य कुलवाले नगर श्रेष्ठि ऋषभदत्त और धारिणीके अपत्य तेजस्वी रूप सम्पन्न-चरम के वली जम्बूस्वामीका जन्म वी.सं पूर्व १६ हुआ। सुधर्मा स्वामीसे प्रतिबोधित-ब्रह्मचर्य व्रतधारी जम्बूस्वामीने माता-पिताके अत्याग्रह और प्रसन्नताके कारण आठ श्रेष्ठि कन्याओंसे शादी करके प्रथम रात्रिमें ही वैराग्यमयी गिरासे उनको प्रतिबोधित करके आठों पत्नी, उनके माता-पिता और ५०० चोरके स्वामी प्रभवादिके साथ-~-प२६ के साथ चारित्र ग्रहण किया। आगमाभ्यास-पूर्वाभ्यास करके-उत्कृष्ट आराधनासे घातीकर्म क्षय करके चरम केवली बने और ८० वर्षकी आयु पूर्ण करके वी.सं. ६४में निर्वाणपदको प्राप्त हुए। चरमनिर्वाणी बने। प्रभव स्वामी-प्रथम श्रुतकेवली-६१ ५०० चोरोंके अधिपति कात्यायन गोत्रीय-क्षत्रिय कुलीन विंध्यनरेशके पुत्र आर्य प्रभव, जम्बूस्वामीसे प्रतिबोधित होकर तीस सालकी आयुमें श्री जम्बूके साथ ही दीक्षित हुए वीर सं. १, और विद्याध्ययन करके प्रथम श्रुतकेवली बने। उन्होंने जम्बूस्वामीके निर्वाण पश्चात् दी.सं. ६४में आचार्यपदका उत्तरदायित्व स्वीकार किया और १०५ वर्षकी आयु पूर्ण करके वी.सं. ७५में शय्यंभव सूरि महाराजको पट्टका उत्तरदायित्व सौंपकर स्वर्गवासी बने। आर्य शय्यंभव सूरि--अहंकारी, प्रकांड-पंड़ित श्री शय्यंभवका जन्म राजगृहीके वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कुलमें हुआ-वी.सं.३६। यज्ञ करते समय जैन साधुसे प्रतिबोधित होने पर प्रभव स्वामीसे सत्यज्ञान प्राप्त होते ही जैनत्वका निर्भीकतासे स्वीकार कर मनकपिता वी.सं. ६४में जैन मुनि बने और चौदह पूर्वी-श्रुतके वली होकर वी.सं. ७५में आचार्यपद पाया। ६२ वर्षकी आयु पूर्ण करके वी.स स्वर्गवासी हुए। अल्पायुष्क पुत्र मनकको चारित्र प्रदान करके श्रुतसागरको 'दस वैकालिक' गागरमें समाविष्ट करके सुंदर आराधना करवायी थी। इन्होंने अनेक ब्राह्मणोंको आध्यात्मिकताका सम्यक स्वरूप समझाकर जैनानुकूल बनाकर जिन शासनकी महती प्रभावना की। आर्य यशोभद्र सरि--तुंगीकायन गोत्रीय कर्मकांडी ब्राह्मण कुलमें यशोभद्रजीका जन्म वी. सं. ६२में हुआ। आ. शय्यंभव सूरिजीकी प्रेरक पियूषवाणीसे प्रतिबोधित होकर वी.सं.८४में दीक्षा अंगीकार की। श्रुताभ्यासानन्तर चौदह पूर्वी होकर वी.सं.९८में आचार्यपद प्राप्त किया। अपने गुरुकी
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