SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (वर्तमान में भी ओस्ट्रेलियाके एक डोकटरने सफल ओपरेशन करके गर्भ संक्रमण (परिवर्तन) करके यह प्रक्रियाकी सत्यताकी पुष्टि की है। ) गर्भके प्रभाव से माता त्रिशलादेवी चौदह महास्वप्नोंका अर्धनिद्वामें दर्शन करती हैं।" पंचम दुषमकालका प्रभाव - “मेरे हिलने से माता को कष्ट न हों" ऐसे भक्ति युक्त गर्भस्थ शिशु भगवंतने अंगोपांग गोपन किये स्थिर हो गए लेकिन कालप्रभावके कारण सुखप्रद निमित्त किये गए कार्य भी दुःखमय अनुभूति करवाते हैं इस न्यायसे माताको दुःख होने लगा। गर्भकी अशुभ कल्पनासे शोकाकुल और व्यग्र होकर रुदन करने लगीं, जिससे समस्त परिवार और नगरजन भी व्यथित हुए। अवधिज्ञानसे माताको शोकाकुल जानकर भगवंतने एक उंगली हिलाकर अपनी स्वस्थताका- स्फुरनका अनुभव करवाया और माता-पितादि परिवार, नगरजनों आदिको शोकमुक्त करवाया। जन्म कल्याणक और जन्मोत्सव- इस तरह अंतिम अरिहंत माता देवानंदाकी कुक्षिमें बयासी दिन एवं माता त्रिशलाकी रत्नकुक्षिमें सार्ध छ मास पले माता त्रिशलाके शुभ दोहद राजा सिद्धार्थने पूर्ण किये। अन्ततोगत्वा चैत्र शु. १३के दिन प्रत्येक ग्रहकी सर्वोच्च स्थिति होने पर और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें चंद्रका योग होने पर सकल जीवराशिके कल्याणकारी और सुखाह्लादप्रद परमात्माका जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारिकाओंने सूतिकर्म संपन्न करके नृत्यगानादि द्वारा आनंदोल्लास प्रदर्शित करके जन्मोत्सव मनाया। तदनन्तर पंचरूपधारी सौधर्मेन्द्र द्वारा मेरु शिखर पर प्रभु को जन्माभिषेक निमित्त ले जाया गया। असंख्य देवों द्वारा अत्यंत विपुल जलराशिसे मस्तक पर अखंड धारासे अभिषेक किया जाने लगा तब सौधर्मेन्द्र चिंतित हो उठे "नवजात शिशु परमात्मा इतने जलराशिको कैसे सहेंगें ?" इस विचार तरंगको अवधिज्ञानी भगवंतने निराकृत करने हेतु चरण अंगूठे के स्पर्शमात्र से अचल मेरु पर्वतको कंपायमान मेरु पर्वतको कंपायमान करते हुए आत्माकी अनंत शक्ति और तीर्थंकरोंके उत्तमोत्तम पुण्योदय एवं विशिष्ट प्रकारके वीर्यान्तराय कर्मक्षयोपशम से प्राप्त उत्कृष्ट वीर्य प्रभावका परिचय करवाया। प्रातःकाल माता-पिता परिवार नगरजनों द्वारा बड़े ठाठसे भव्यातिभव्य रूपसे जन्मोत्सव मनाया गया। आपके पुण्य प्रभावसे परिवार एवं नगरजनों के सुख-समृद्ध शांति यश आदिकी वृद्धि होनेसे गुण निष्पन्न ऐसा “ वर्धमान” नामकरण किया गया। यथा ५७ ." ५८ P "करी महोत्सव सिद्धारथ भूप नाम धारे वर्धमान"बालक्रीडा वीर उपनाम प्राप्ति- बचपनमें मित्रोंके साथ क्रीड़ा करते समय भयंकर महाकाय सर्प (भोरिंग जो देवमाया थी) को हाथमें रस्सीकी भाँति निर्भीकतापूर्वक उठाकर दूर रख दिया और साहस एवं वीरताका परिचय करवाया। तदनन्तर खेलमें साथी (देवने इरावना पिशाचरूप किया तबभी मुष्टि प्रहारसे देवको वश करके, वर्धमान कुमारने उस देवद्वारा "वीर" उपनाम प्राप्त किया। Jain Education International 29 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy