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माता-पिता द्वारा मोहवश ज्ञानार्जनके लिए अवधिज्ञानी भगवंतको पाठशाला ले जाया गया जो अयुक्त था। अतएव सौधर्मेन्द्रने ब्राह्मणका रूप धरकर अध्यापकके मनकी शंकाओंकी पृच्छा की, जिनका अवधिज्ञानवंत वीर प्रभुने प्रत्युत्तर रूपसे जो शब्द पारायण-शब्दानुशासन प्रकट किया वही "जैनेन्द्र व्याकरण" के नामसे प्रसिद्ध हुआ। "
यौवनवय सम्प्राप्त परमात्मा सुवर्णवर्ण, सात हाथ (३२५ से.मी.) अवगाहना, अत्यंत सुंदर सौष्ठवयुक्त तेजस्वी तनसे लाभान्वित होनेपर भी अनासक्त एवं निर्मोही भावसे, केवल कर्मोदयके उदय और माता-पिताके अत्याग्रहवश समरवीर भूपतिकी 'यशोदा' नामक कन्यासे पाणिग्रहण करते हैं। भोग-विलास विलसते हुए परिणाम स्वरूप 'प्रियदर्शना' नामक पुत्रीरत्न की प्राप्ती होती है। माता-पिताके अत्यधिक वात्सल्य स्नेहवश आपने वैराग्यभाव गोपनीय
रखा।
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दीक्षाग्रहण वीतराग श्री वीर प्रभुने अट्ठाईस सालकी आयुमें मात-पिताके निधन बाद, और ज्येष्ठ बंधु नंदीवर्धनके निर्बन्धसे भाव यत्यालंकृत, नित्य ब्रह्मचर्य धारीक, विशुद्ध ध्यान तत्पर, कायोत्सर्ग लीन, प्रासुक एवं एषनीय अन्नजलसे प्राणवृत्ति करते हुए एक वर्ष व्यतीत किया तब नव लोकान्तिक देवोंकी तीर्थ प्रवर्तमान करनेकी विनतीको लक्ष्यकर, तीर्थंकरोंके आचार रूप वार्षिक दान देकर तीस वर्षकी पूर्ण युवावस्थामें दीक्षाग्रहण हेतु " चन्द्रप्रभा " नामक सुशोभित शिबिकारूढ़ होकर नंदिवर्धन नृपादि जन समुदाय एवं सौधर्मेन्द्रादि देवगण द्वारा कराये गए निष्क्रमणोत्सव युक्त ज्ञातखंड उद्यानमें अशोकवृक्ष नीचे सर्व वस्त्रालंकार त्यागकर और देव प्रदत्त देव दृष्य वस्त्र धारण कर, द्रव्यसे पंचमुष्टि केशलुंचन कर, और भावसे राग-द्वेषादिसे विमुक्त-मुंड बनकर मृ. कृ. १० को हस्तोत्तरा नक्षत्रमें चंद्रका योग प्राप्त होनेपर दो उपवासके तप युक्त सर्वविरति चारित्र एकाकीने ग्रहण किया। तत्क्षण चतुर्थ मनः पर्यवज्ञान प्रगट हुआ। (यह ज्ञान सर्व विरतिधरको ही होता है) कैवल्य लाभ - परमयोगी, अत्यंत वाचंयम, तीन योग नियंत्रक, निरापवाद उत्कट तीव्र चारित्रधारी, निर्निमेष आत्म ध्यान सेवी, बाईस परिषह और (देव-दानव मानव तिर्यंचकृत) भयंकर उसर्गों को " सहते हुए, उत्कृष्ट अहिंसा-संयम तप रूप धर्म साधक, असंग होकर, धर्मध्यान- शुक्लध्यान धारारूढ सार्ध बारह वर्ष में ३४९ दिन ही पारणा (एकासन) करके आहार ग्रहण करनेवाले, शेष दिन निर्जल उपवासधारी; उग्र ध्यान रूप अग्नि कसौटी पर आत्माको कसके कर्म निर्जराके सफल यज्ञकी उपासना करते करते पृथ्वीतल पर विचरते हुए, ऋजुवालुका नदीतटके, जृंभक गाँव बाहर, श्यामाक नामक गृहस्थके खेतमें 'अस्पष्ट' नामक व्यंतरके चैत्यके पास शाल वृक्षके नीचे दो उपवास युक्त उत्कटिक आसनसे आतापना लेते हुए, शुक्लध्यान मग्न-क्षपक श्रेणि पर आरोहित चार घनघातीकर्म क्षय करके वै शु. दसमीको शामके चतुर्थ प्रहरमें चंद्रका हस्तोत्तरा नक्षत्रमें योग होने पर लोकालोक प्रकाशक, त्रिकालवित् सकल संशय विनाशक वरकेवलज्ञान- वरके वलदर्शनसे लाभान्वित हुए।
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सर्व जीवों को हर्षोल्लास हुआ
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