________________
अंतर्मुहूर्त शेष रहने पर बादर मन-वचन-काय योग और सूक्ष्म मन एवं वचन योग क्रमसे रोध करते हुए शुक्लध्यानको ध्याते हुए निर्वाणकाल पांच हृस्वाक्षर अल इ,ऋ,ल- उच्चारणकाल पूर्व सूक्ष्मकाय योगका रोध करते हैं अर्थात् मन-वचन-कायाके सूक्ष्म एवं बादर योगोंका त्याग करते हुए शुक्लध्यानके चतुर्थपादमें स्थिर बनकर शैलेशीकरण करके अवशिष्ट कर्मोंको क्षीण करते हुए, सर्व कर्म रहित होकर मोक्षपद-निर्वाण पदको प्राप्त होते है। चरम तीर्थपति श्री महावीर स्वामी चरित्र - “वीरः सर्व सुरा सुरेन्द्र महितो, वीरं वुधाः संश्रिताः ।
वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्य नमः ।। वीरातीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपो ।
वीर श्री धृति कीर्ति कान्ति निचयः श्री वीर भद्रं दिश ।।"५३ “आत्मैवात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः" - पंक्तिको चरितार्थ करनेवाले और अशुभ कर्मोदयकालमें सहनशीलताका मूर्तिमंत स्वरूप, चरम अरिहंत श्री महावीर स्वामी अषाढ़ शुक्ल षष्ठीको उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें चंद्रका योग होने पर प्राणत कल्पसे च्यवकर माहणकुंड-ग्राम नामक नगरके
ब्राह्मणकी देवानंदा नामक अर्धांगिनीकी कुक्षिमें १४ स्वप्नसे तीर्थंकरपनेको सूचित करते हुए अवतरित हुए। त्रिलोकमें तेज प्रसरा आश्चर्यभूत गर्भ परिवर्तन-यह शाश्वत नियम है कि प्रत्येक तीर्थंकर क्षत्रियादि उच्च कुलोमें ही जन्म लेते हैं। लेकिन कर्म सिद्धान्तके निश्चित और अनूठे परिपाकका मूर्तिमंत स्वरूप हमें तीर्थपतिका ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होना-आश्चर्यकारी घटना स्वरूप दृष्टिगत होता है। जिसका कारण यह है कि सम्यक्त्व प्राप्तिके पश्चात् तृतीय-मरिचिके भवमें 'अपने प्रथम वासुदेव, चक्रवर्ती और चरम तीर्थंकर स्वरूप उत्तमोत्तम पदप्राप्ति करानेवाले उत्कृष्ट पुण्यका और इस अवसर्पिणी कालके प्रथम तीर्थंकर (आदिनाथ) प्रथम चक्रवर्ती (भरत महाराजा) और प्रथम वासुदेव (त्रिपृष्ठ)-दादा, पिता और स्वयंको बननेका सौभाग्य--उत्तम कुल प्राप्ति का अत्यंत अभिमान किया;८ साथ ही साथ बिना आलोचना-प्रायश्चित किये ही वह भव पूर्ण करके अनेक भव भ्रमण प्राप्त किये। उस कुलाभिमानने नीच (याचक) कुलके लिए कर्मबंध करवा दिया; जो तदनन्तर असंख्य क्षल्लुक भव और छः ब्राह्मण भवों में भुगतते हुए बयासी दिन प्रमाण कर्म शेष रह गया था, इस चरम भवमें उदयको प्राप्त हुआ। फलस्वरूप याचक कुलमें देवानंदा माताकी कुक्षिमें बयासी दिन रहना पड़ा।
नीचकर्मके भुक्तान बाद तुरंत ही प्रथम स्वर्गके सौधर्मेन्द्रका सिंहासन कंपायमान हुआ जिससे अवधिज्ञानसे प्रभुको देवानंदाजीकी कुक्षिमें ज्ञात करके तत्क्षण आनंद-प्रमोद एवं विलाससे निवृत्त होकर शक्रस्तव' किया। और अपने कर्तव्यका चिंतन करते हुए अपने हरिणीगमेषी नामक सेवक देवको गर्भ परिवर्तनका आदेश दिया। तदनुसार उस देवने क्षत्रियकुंड ग्राम नगरके राजवी सिद्धार्थकी पटराणी-त्रिशलादेवीकी कुक्षिमें संक्रमित किया
(28)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org