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सुवर्ण मुद्राओंका दान करते हैं अर्थात् एक वर्षमें तीनसौ अठ्यासी क्रोड़ अस्सीलाख सुवर्ण मुद्राओंका (वर्तमान कालके हिसाबसे प्रत्येक दिन नवहजार मण सुवर्ण होता है। दान करते हैं। उनकी दानशालासे चार प्रकारका---भोजन-वस्त्र-आभूषण और सुवर्ण मुद्राओंका---दान होता है। १२ वर्षान्ते सुरासुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा गीत-गान-नृत्यादि से निष्क्रमणोत्सवपूर्वक रत्नशिबिकारूढ होकर नगरीके बाहर उद्यानमें, श्रेष्ठ वृक्षके नीचे वस्त्रालंकारादि सर्व समृद्धि त्यागकर, द्रव्यसे पंचमुष्टि केशलुंचन करके और भावसे विषय-कषाय, राग-द्वेषादि रहित बनकर आत्मकल्यणाकारी भागवती प्रव्रज्या अंगीकार करनेके लिए-अगार से अनगार बननेके लिए--इंद्र प्रदत्त देवदूष्य वस्त्र ग्रहण कर, सिद्ध परमात्माको नमस्कार करते हुए आजीवन सामायिक व्रत (चारित्र) का उच्चारण-सूत्रपाठ करते है। अतएव चारित्ररूपी रथारूढ होकर कर्मकटकसे युद्ध करके विजयशील बननेके लिए कटिबद्ध होते हैं। तत्काल संयमके सहोदर सदृश ढाईद्वीपके संज्ञी पंचेन्द्रियके मनोगत भाव दर्शानेवाला चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान आविर्भूत होता है।
दीक्षानंतर अष्ट प्रवचन माता धारक, सर्व जीव प्रतिपालक, भारंड तुल्य अप्रमत्त, वीतराग दशामें-निज कर्मोन्मूलनमें वज्र सदृश-परिषह एवं उपसर्गको धैर्यपूर्वक सहते हुए तपाराधना, ध्यानोपासना एवं आत्म साधना करते हुए चार घातीकर्मोंका क्षय होनेसे सम्पूर्णअविनाशी-लोकालोक भास्कर-त्रिकालवित् सर्वद्रव्यके सर्व पर्यायोंको हस्तांवलक सदृश जाननेदेखनेवाला, अक्रमिक केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं. सर्वज्ञ बनते हैं ।
देवेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा केवलज्ञान प्राप्तिके स्वर्णावसरके उपलक्ष्यमें महोत्सव किया जाता है। चार निकायके देवों द्वारा दस हज़ार सोपान युक्त प्रथम चांदीका, पाँच हज़ारसीढीवाला द्वितीय सुवर्णका, पाँच हज़ार पौड़ीयुक्त तृतीय रत्नका-ऐसे तीन गढ़ और सुवर्ण रत्नमय सिंहासनवाला-एक योजन परिमाणवाले समवसरणकी रचना की जाती है, जिसमें जिनेश्वर 'श्री तीर्थाय नमः' उच्चारण पूर्वक, पूर्वाभिमुख सिंहासनारूढ होते हैं और व्यंतर देवों द्वारा विकुर्वित अरिहंतके बिंब तीन दिशाओंमें बिराजित किये जाते हैं। ऐसे . चारों दिशा स्थित चतुर्मुखसे अरिहंत बारह पर्षदाको उद्बोधित करते हुए भव-निस्तारिणी, हित-मित-पथ्य, अमृतधारामय, सूर-लय-बद्ध, पैंतीस गुणालंकृत देशना प्रकाशित करते हैं। वीतराग द्वारा प्रसारित त्रिपदी-“उपनेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" प्राप्त होते ही बीज बुद्धिके स्वामी-गणधर भगवंत वटवृक्ष सदृश-द्वादशांगीकी रचना करते हैं। इस तरह बारह गुणयुक्त, अठारह दोषमुक्त, चौतीस अतिशय अलंकृत, नव स्वर्णकमल पर पादधारी, जघन्यसे क्रोड़ देवोंसे सेव्यमान अरिहंत परमात्मा निज आयुष्य पर्यंत विचरते हुए विश्व कल्याणका ध्वज़ फहराते हैं। प्रत्येक तीर्थंकरके शासनरक्षक यक्ष-यक्षिणी, भक्तजनोकी मनोकामनायें पूर्ण करते हैं।
आयुष्य पूर्ण होने के कुछ समय पूर्व संलेषणा रूप अनशन करते हैं। आयुकालका
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