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________________ निकाचित' करने के लिए "सवि जीव करं शासन रसी"-सर्व जीवात्माकी कल्याण कामनाके साय बीस स्थानक' तपाराधन करते हैं। आयु पूर्ण होने पर शुभ कर्म भोगनेके लिए स्वर्गलोकमें अथवा सम्यक्त्व प्राप्ति पूर्व ही अशुभायुष्य कर्मबंध हो गया हो तो पाप कर्मके फल भोगने हेतु नरकमें जाते हैं। उदा. भगवान श्री महावीरके परमभक्त महाराजा श्रेणिक भावि उत्सर्पिणीकालमें प्रथम अरिहंत होनेवाले हैं -आज रत्नप्रभा नरकमें अशुभ फल भोगते है. देव या नरकभवका आयुष्य पूर्ण करने पर वहाँसे च्यवकर चौदह स्वप्न सूचित रत्नकुक्षि माताके उदरमें अवतरित होते हैं। गर्भकालमें भी अरिहंतके प्रभावसे माता-पितापरिवारादिमें सुख-समृद्धि और शुभ भावोंकी वृद्धि होती रहती है। गर्भकाल पूर्ण होने पर सर्व ग्रह, सर्वोच्च स्थान पर आने से, जैसे पूर्व दिशा दिनकरको उदित करती है, वैसे ही माता प्रसव-वेदनाके कष्ट रहित-सुखपूर्वक अर्धरात्रीके समय परम तारक त्रिलोकीनाथको जन्म देती हैं। आपके जन्मके पुण्य-प्रभावसे त्रिलोकके, चौर्यासी लक्ष योनिके सकल जीवोंको सुखालाद का अनुभव होता है। घोरातिघोर अंधकारमय नरकमें भी ज्योतिर्मय उद्योत फैल जाता है। शिशु परमात्मा के जन्मके प्रभावसे छप्पन दिककुमारियों (देवियों) के आसन कंपायमान होनेसे, अवधिज्ञानसे परमात्मा-जन्म जानकर निज-निज स्थानसे जन्मोत्सवके लिए आती है; तो चारों निकायके वैमानिकादि चौसठ इन्द्रों सहित सर्व देव सौधर्मेन्द्रके आदेशानुसार मेरु पर्वत पर जिन-जन्मोत्सवके लिए-स्नात्र महोत्सव करने के लिए विभिन्न तीर्थों के, क्षीरोदधि आदि समुद्रोंसे जल एवं वनोपवनोंसे औषधादि-पुष्पादि विभिन्न पूजा सामग्री लेकर आते हैं और मेरु पर्वतकी पांडुकवनकी पांडुकबला नामक सिंहासन रूप स्फटिक शिला पर बैठे हुए सौधर्मेन्द्रके उत्संगमें बिराजमान प्रभुका जन्माभिषेक करते हुए भक्ति करते हैं। पश्चात् प्रातःकाल पुत्र जन्मकी बधाई मिलते ही प्रभुके पिता-नराधिपकी ओरसे नगरमें सर्वत्र-सर्व नगरजनों द्वारा धूमधामसे-आनंदोल्लाससे-जन्मोत्सव मनाया जाता है। तीन ज्ञान संयुक्त बाल तीर्थंकर शुक्ल पक्षके चंद्रकी भाँति वृद्धिगत होते होते जब यौवनवय-प्राप्त होते हैं, तब गुणवान-शीलवान और स्वरूपवान एक या अनेक कन्यारत्नसे पाणिग्रहण करके-भोगावली कर्मको भोगते हुए पुत्रादि परिवार संयुक्त, वैभव विलास युक्त संसारलीलामें जलकमलवत् रमण करते हैं। पिताकी प्रेरणा व आदेशसे राज्यलक्ष्मीकी धुरा वहन करते हुए स्वस्थ और सफल-शांत और स्थिर राज्य संचालन करते हैं। संसारसे निर्लेप और निर्वेदित चित्तयुक्त रहनेवाले स्वयंका दीक्षाकाल अवधिज्ञानसे जानकर अनुजबंधु या निजांगज-युवराजका राज्याभिषेक करके लोकांतिक देवोंकी "धर्मतीर्थ प्रवर्तमान करनेकी" विज्ञप्तिको लक्ष्यमें रखते हुए एक वर्ष पर्यंत-प्रतिदिन एक क्रोड आठ लक्ष (26) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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