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________________ दो चउ चार जधन्य दस जंवू धायइ पुक्खर मोझारजी, - पूजो प्रणमो आचारांगे प्रवचन सारोद्वारजी ।” अतएव चौदह राजलोक जितने विशाल क्षेत्रको दृष्टिपथ पर रखते हुए जैनधर्मकी शाश्वतताका परीक्षण करें, तो सभी सहजतासे स्वीकार करेंगे कि, क्षुल्लक ऐसे भरतैरावत क्षेत्रों को छोड़कर, उससे कई गुणे विस्तृत क्षेत्रमें जैन धर्मकी आराधना-साधना-उपासना निरंतर करते हुए कर्म निर्जरा करके जीव मोक्ष प्राप्ति करने में पर्याप्त रूपसे सक्षम बनते है। तिर्खालोकके मनुष्य क्षेत्रमें भरतैरावत क्षेत्रापेक्षया जैन धर्म ज्वार-भाटा सदृश प्रमुदित एवं प्रषुप्त है, तो महाविदेह क्षेत्रापेक्षया शाश्वत भावसे अखंड़, अव्याबाध, अस्खलित रूप आराधित है। (५) कालगत शाश्वतता- श्री केवलज्ञानी भगवंतके प्रत्युत्पन्न ज्ञानलवसे ज्ञेय पदार्थों के त्रिकालवित् सर्वसंपूर्ण-अक्रमिक भावोंको ज्ञात किया जाता है। उन्हीं भावोंको ज्ञानी भगवंतोंने एवं पुर्वाचार्यों ने कालचक्रके स्वरूप-निरूपणको साथ लेकर अनंत सुख स्वरूप शाश्वत और प्रामाणिक धर्मका जिक्रभी किया है। जिसकी साधनासे अनंत जीव मोक्षसुखको प्राप्त कर गये हैं-कर रहे हैं और करेंगें। शाश्वतताके संदर्भमें यहाँ कालचक्रका यत्किंचित् अत्यन्त संक्षेप स्वरूपोल्लेख अस्थानीय न होगा। इसके दो विभागके छ-छ आरे होते है। कालचक्र स्वरूप -काल प्रभावके कारण प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालमें काया-प्रमाण कायबल, बुद्धि, आयु, कांति, सुख, समृद्धि, गुण, रिद्धि, पृथ्वी, जलादिके रसकसमें उत्तरोत्तर वृद्धि-हानि दृष्टिगोचर होती है। (अवसर्पिणीके प्रथम तीनों आरोंका स्वरूप कालचक्रके चित्रानुसार ज्ञातव्य है। इसके तृतीय आरेके प्रान्त समयमें कल्पवृक्षके अभिप्सित दानमें कमी आती है, कभी तो देते ही नहीं, जिससे युगलिकोंमें ममत्व-लोभादि दुष्ट भावनायें उद्भावित होने लगती हैं। पल्योपमके' आठवें भाग जितना काल तृतीय आरेके समाप्त होनेमें शेष रहने पर युगलिकों के झगड़ों के न्याय करने और अपराधीको दंड देने हेतु एक वंशमें सात कुलकरोंकी प्रसिद्धि हुई। वे कुलकर ही न्यायाधीश और राजा सदृश होते हैं। __इस अवसर्पिणी कालके विमलवाहन और चाक्षुष्मान् कुलकरोंके समयमें केवल 'हा'कार (हा ! तुमने यह क्या किया ?) दंड था; यशस्वान् और अभिचंद्रके समयमें 'हा'कार और 'म'कार (सामान्य अपराधके लिए 'हा'कार और विशिष्टके लिए 'ऐसा मत करना') दंडनीति रहीं; प्रश्रेणि, मरुदेव और नाभिके समयमें तिसरी- धिक्कार' नीति भी जोड़ दी गई थी। इन्हीं सातवें नाभि कुलकरके कुलमें तृतीय आरेके ८४ लाख पूर्व-८९ पक्ष शेष रहते हुए प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवका जन्म हुआ। इस अवसर्पिणीमें प्रथम विवाह आपका ही अन्य कन्यासे-इंद्र द्वारा रचा गया, जिससे युगलिक प्रथाका' अन्त हुआ। साथसाथमें कल्पवृक्ष नष्ट होने पर खाने हेतु धान्य उत्पन्न होने लगता है। बाद र अग्नि प्रकट होने (19) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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