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पर लोगों की विनती और नाभि कुलकरके आदेशसे श्री ऋषभदेवजी इस अवसर्पिणीके प्रथम राजा बनकर शिल्पादि स्त्री-पुरूषोंकी कलायें सिखाते हैं। तदनन्तर आपने ही प्रथम दीक्षा लेकरके आत्म साधना करते हुए केवलज्ञानकी ज्योत सर्वप्रथम प्रज्वलित की-जो कभी तेज, कभी मंद होने पर भी संप्रतिकालके अंतिम भगवान श्री महावीर स्वामी तक विश्वके प्राणीयोंको -- विशेष रूपसे भरतक्षेत्रके भव्यजीवोंके उत्कृष्ट जीवनके प्रशस्त राजमार्गको प्रकाशित करती रही है। आपके निर्वाणके प्रश्चात् ८९ पक्षके व्यतीत हो जाने पर तृतीय 'सुषम-दुःषम' आरेकी समाप्ति होती है ।
तत्पश्चात् ४२,००० साल कम एक कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणोपेत चतुर्थ दुषमसुषम' नामक आरेमें धर्म-कर्मका साम्राज्य रहा। द्वितीय तीर्थपति श्री अजितनाथसे अंतिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी पर्यंत-तेईस तीर्थंकर धर्मका प्रादुर्भाव एवं प्रचलन करते हुए स्वपर कल्याण में तत्पर हुए। इस आरे के सर्व भाव महाविदेह क्षेत्रकी विजयोंकी भाँति ही होते हैं। इस आरेके अंत होने पर मोक्ष मार्गमें हानि होती है। भगवान श्री महावीरके निर्वाण पश्चात् ८९ पक्ष व्यतीत होने पर यह आरा समाप्त होता है।
तदनन्तर २१,००० साल पर्यंत दुषमकालके भाव प्रवर्तीत होने लगते हैं। इसमें बहुलतासे दुःखकी अनुभूति विशेष होती है। सुखमें भी दुःखागमनकी भ्रान्ति चित्तको परिताप करती रहती है। मानवकी उत्कृष्ट आयु १२५ साल और उत्कृष्ट अवगाहना (ऊँचाई) सात हाथकी, आहार अनियमित होता है। इस कालकी समाप्तिके पहले ही जैन धर्म शनैःशनैः हास होते होते विच्छिन्न हो जायेगा। अंतमें चतुर्विध संघ रूप केवल चार धर्मीजन साधु श्री दुप्पसह सूरिजी म.सा., साध्वी श्री फल्गुश्रीजी म., श्रावक श्रीनागिल, श्राविका सत्यश्री नामकही रहेंगें। उनके कालधर्म-मृत्यु पश्चात् जैन धर्मका प्रकाश भरतैरावत क्षेत्रसे लुप्त हो जायेगा। इस कालके प्रारंभसे ही क्रषाय, कामासक्ति, मद-अभिमान, क्रूरता, हिंसा, मिथ्यामत, पाखंड, उत्सूत्र प्ररूपणा, कपट-कदाग्रहादिकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है; तो उत्तमाचार, कुलीनता, विनय, मर्यादा, विद्या प्रभाव, मैत्रीभाव, घी-दूध-धान्यादि सार पदार्थों के सत्व, आयुष्य, मैत्री, भावादि अनेक गुणों की उत्तरोत्तर हानि दृष्टिगोचर होती हैं, जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हम कर रहे हैं क्योंकि वर्तमानमें यही आरा प्रवर्तमान है।
अंतिम २१००० साल प्रमाणोपेत ‘दुषमदुषम' नामक एकांत दुःखमय कालका प्रारंभ होता है, जिसमें नि:केवल दुःख, वेदना, परितापयुक्त जीवनयापन करते हुए; दिनमें भयंकर-असह्य गरमी और रात्रीमें कातील सर्दी सहते हुए; गंगा-सिंधु या रक्ता-रक्तवती नदियोंके बिलोंमें निवास करनेवाले, उत्कृ. बीस सालकी आयुष्यधारी, एक हाथ अवगाहना (उँचाई)वाले, अमर्यादित आहारेच्छावाले, परस्पर कलेशवाले, दीन, हीन, दुर्बल, दुर्गंधमय, रोगीष्ट, अपवित्र, नग्न, आचारहीन, धर्मरहित, पुण्यरहित, केवल मांसाहारी (मत्स्यादि जलचरोंको नदी किनारेकी रेतमें गाड़कर दिनमें सूर्यगरमीसे पकनेवाले मांसके आहारी) और आयुष्य पूर्ण होने पर नरक-तिर्यंचगामी मनुष्य रहेंगें।
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