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तिच्छालोकके तिर्यंच भी (जलचर, खेचर, भूचरादि पशु-पक्षी) इससे अपनी आत्म साधना-त्रिविधाराधना करते हैं, तो मनुष्य संसार समुद्रसे इसीके बल पर किनारा कर लेते
एक तोता पालीतानाके सिद्धगिरि-शंजय पर्वत पर विराजित श्री आदीश्वर भगवानकी प्रतिमाकी नित्य पूजा-अर्चना करता था, वह मरकर मनुष्य गतिको प्राप्त हुआ । उस मानव बालक-सिद्धराज जैन-को पूर्वभव स्मरण रूप 'जातिस्मरण' ज्ञान हुआ तव इस बातका पर्दा खुला" ।
आश्चर्य होगा यह जानकर कि एक कुत्ता बम्बईसे पालीताना तीर्थयात्रा के संघमें साथ था, जो उपवासएकासनादि तप मनुष्यकी भाँति (थावक सदृश) करता था, प्रवचन सुनता था और भगवानके दर्शन-वंदनादि करके प्रभु भक्ति भी करता था ।
एक कछुआ-बड़ोदाकी एम्वेसेडर रेस्टोरमें था-जो परमात्माके मंदिरमें नित्य प्रदक्षिणा करते हुए वीतरागदेवाधिदेवके दर्शन करता था, शाश्वत मंत्र-श्री नमस्कार महामंत्र- ध्यानसे सुनता था और रात्री-भोजन त्याग-पर्वतिथि हरि सब्जी त्याग-प्रासुक पानी वापरना आदि जन-श्रावकोंके नियमोंका यथोचित पालन करता था"".
ऐसे अनेक उदाहरण जैनागमों-शास्त्रों-इतिहासादिके स्वर्णपृष्ठों पर अंकित हैं। मध्यलोकके मनुष्य क्षेत्रमें से (ढ़ाइद्वीपमेंसे) पाँच महाविदेह क्षेत्रमें इसकी आराधना अस्खलित धारा प्रवाहरूप निरंतर आराधित है, जबकि अन्य पाँच भरत-पाँच ऐरावत-में काल प्रभावसे मर्यादित है। यथा- “पुक्खर वरदीवढ्ढे, धायई संडे अ जंवूदीवे अ भरहेरवय विदेहे, धम्माइगरे नमसामि". अतएव इन क्षेत्रोमें मानव भवोपकारी धर्मकी अविच्छिन्न आराधनाकी अविरत धारा प्रमाणित होती है।
इस प्रकार क्षेत्रापेक्षया भरत-ऐरावत---दस क्षेत्रों में अवसर्पिणी कालमें तृतीय आरेके अंतसे पंचम आरेके अंत तक और उत्सर्पिणी कालमें तृतीय-चतुर्थ आरेमें धर्मप्रवृत्ति नवपल्लवित होती है-फूलती है-फलती है जबकि इसके अतिरिक्त कालमें धर्माराधनायें लुप्त हो जाती हैं; महाविदेह क्षेत्रमें न उत्सर्पिणी काल है-न अवसर्पिणी, न युगलिक युगकी व्यवस्था है न धर्म विच्छेद, न कभी तीर्थंकरोंका विरह-न उनसे प्ररूपित धर्मकी कभी विच्छिन्नता-न व्युत्पत्ति ... सर्वदा धर्मका सातत्य एवं सानिध्य बना रहता है। कालचक्रकी कोई परिगणना वहाँ नहीं होती। क्षेत्रके विशिष्टातिशयके कारण, वहाँ अपने स्वाभाविक रूपसे सर्वदा-सर्वत्रसंपूर्ण जैन धर्म स्वरूप वृत्ति-प्रवृत्ति और आत्माभ्युदय ही नज़र आता है।
इस प्रकारके लक्ष्यसे पर्यालोचन करें तो जैन धर्मकी शाश्वतता समझना अतीव सहज एवं सरल है। पाँच महाविदेहकी १६० विजयोमें (प्रत्येक विजयका क्षेत्रीय स्वरूप पूर्णतया एक भरत या ऐरावत क्षेत्र समान होता है) से जधन्यकालमें बीस या दस और उत्कृष्ट कालमें प्रत्येक विजयमें तीर्थंकरोंका सदेह विचरण एवं जैन धर्मकी सर्वोत्कृष्ट प्रभावना होती है। -यथा “बत्तीस चउसठ चउसठ मलिया, इगसय सट्ठि उकिट्ठाजी,
चउ अड अड मली मध्यमकाले, बीस जिनेश्वर दिट्ठाजी,
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