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उ. जहेव लोए य अलोए य तहेव जीवा य अजीवा य, एवं भवसिद्धाय-अभवसिद्धाय, सिद्धि-असिद्धि, सिद्धा-असिद्धा.......से णं अंडए कओ ? कुक्कुडीओ । सा णं कुक्कुडी कओ ? अंडयाओ । एवमेव रोहा ! साय अंडए, साय कुक्कुडी पुपिते, पच्छापेते दुवे-ते सासय भावा । १.
इसी तरह मोक्ष मार्गका, विश्वके समस्त पदार्थोंका, नय-निक्षेप प्रमाणोंका, अनेकान्त स्याद्वादादिका, लोकालोकका, विश्वमें सर्वश्रेष्ठ जीवविज्ञानका, सम्यक् दर्शन-स.ज्ञान-स.चरित्र रूप रत्नत्रयीका सत्य तत्वमय सुदेव-सुगुरु-सुधर्मरूप तत्वत्रयीका, देव-मनुष्य-तिर्यंच-नरकादि चार गतिका, जीवोंकी गति-आगति (जन्म-मरणादि)का, साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकारूप व्यवस्थित कानूनबद्ध चतुर्विध संघका, सर्वोत्कृष्ट अहिंसादि सर्वविरति मार्ग स्वरूप पंच महाव्रतोंका, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल रूप षट् द्रव्योंका, एक परमाणु पुद्गलसे द्वयाणुकादि स्कंध स्वरूप परमाणु से स्कंध पुद्गलोंकी व्यवस्थाका, जीवोंको होनेवाले घाती-अघाती आदि रूप अष्टकर्म बन्ध, कर्म-मुक्ति अर्थात् कर्म सिद्धान्त और कर्म व्यवस्थाका, कार्मणादि अष्ट वर्गणाओंका, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, . आश्रव, संवर, बंध, निर्झरा, मोक्ष रूप नवतत्त्वोंका, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रूप नवपदोंका, अणुव्रत (पांच), गुणव्रत (तीन), शिक्षाव्रत (चार) रूप देशविरति मार्ग योग्य बारह व्रतोंका, आत्माके गुण विकास क्रम रूप चौदह गुण स्थानकोंका, चौदह राजलोक स्वरूप लोक व्यवस्थाका और उसकी रचनाके विचारादिकी शाश्वत सैद्धान्तिकताका निरूपण शाश्वत जैनधर्मके ग्रंथोकी एवं उनके प्ररूपक श्री अरिहंत भगवंतोंकी और उनके रचयिता गणधर भगवंतोंकी-परम्परासे पूर्वाचार्यादि अनेक विद्वत्पुंगवोंकी अखंड़, अनंत करुणासे ही निष्पन्न आविर्भाव है-यथा- “इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडगं अतीतकाले अणंत जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसार कंतारं वीईवईसु; एवं पडुप्पण्णेऽवि, एवं अणागाएऽवि ।
“दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयावि णत्थि, ण कयाइ णासि, ण कयाइ न भविस्सइ । "भुवि च भवति य भविस्सत्ति य, अयले, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे ।
“से जहा णामए पंच अत्थिकाया ण कयाइ णासि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सत्ति । भुविं च भवति य भविस्सत्ति य, अयला, धुवा, णितिया, सासया, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया, णिच्या ।” ४२ (८) क्षेत्रगत शाश्वतता- विश्वधर्मके अंदाज़से जैनधर्म चौदह राजलोककी त्रसनाड़ीमें आराध्य धर्म है। यह सकल पंचेन्द्रिय जीवों की साधना स्वरूप है, तो अन्य एकेन्द्रिय और . विकलेन्द्रियादि जीवों के लिए श्रेयस्कर-प्रेयस्कर-उपस्कर है। उर्ध्वलोकके वैमानिक', तिळलोकके ज्योतिष्क और अधोलोकके भुवनपति' एवं व्यंतरादि चारों निकायके देवोंके लिए आराध्यउपास्य-सेव्य है।
इस जैन धर्माचरण और धर्मभावन रूप सम्यक्त्व प्राप्त अधोलोकस्थित नरकावासके नारकभी कर्माधीन वेदनाको समभावसे सहते हुए नए कर्मबंधनसे बच सकते हैं। वेदनापीडा-और परपीड़न सम्यक् रूपेण सहते हुए दुानसे बचावकर आत्मकल्याण कर लेते हैं।
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