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________________ क्रियाओंकी सम्यक् श्रद्धापूर्वक यथोचित परिपालना करते हैं-उसे श्रावक कहते हैं। “श्रृणोति इति श्रावक"- ऐसे श्रावकों द्वारा उपास्य-आराध्य जो धर्म वह जैन धर्म ही 'श्रावक धर्म' के नामसे प्रसिद्धि पा गया है। ऐसे अन्य भी अनेक पर्यायवाची नाम भिन्न भिन्न कालमें, विभिन्न भावों और आराधना विधियों की प्रमुखतासे प्रचलित होते रहते हैं। जैन धर्मकी शाश्वतताका स्वरूप :- (शाश्वतताके साक्षी) “शश्वद् भवम् शाश्वतम्" और "सदा तनमपि सनातनम्"३६.- व्युत्पत्त्यार्थानुसार। उपरोक्त व्युत्पत्त्यानुसार 'शाश्वत' और 'सनातन'-दोनों एकार्थी शब्द हैं लेकिन, जैसे स्फटिक जिस रंगके साथ रहेगा उसी रंगका दिखेगा। वैसे 'शाश्वत' शब्द जैन धर्मका और 'सनातन' शब्द जैनेतर धर्मका पर्यायवाची माना जाता है। प्राचीनता और अर्वाचीनताकी सभी विडम्बनासे रहित; अनुत्पन्न-अविनाशी अथवा अनादि-अनंतकालीन या कहो कि कालातीत; द्रव्य से सर्वथा, क्षेत्रसे सर्वत्र, कालसे सर्वदा, भावसे सर्वके लिए-जो नित्य विद्यमान है, वह है शाश्वतः चाहे वह पदार्थ हों वा सिद्धांत, चाहे वह दर्शन हों वा धर्म। ___अपने चरित्र नायक-न्यायांभोनिधि, पूज्यपाद, आचार्य प्रवर श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.ने अपनी विभिन्न ग्रन्थ रचनाओं में जैन धर्मकी प्राचीनता एवं शाश्वतता प्रकाशित की है - यथा- “यह संसार द्रव्यार्थिक नयके मतसे अनादि-अनंत, सदा शाश्वत है ।३७ अर्थात् निश्चय नयसे यह अनादि-अनंतकालीन-शाश्वत होनेसे न किसीने इसकी रचना की है, न कोई इसका सर्वथा विनाश कर सकता है। अगर 'किसीने रचना की है' ऐसा मानें तब उस रचयिताको कैसे कैसे कलंक मिल सकते हैं और विश्वको शाश्वत क्यों माना जाना चाहिए - इसकी चर्चा “जैन तत्त्वादर्श" के दूसरे परिच्छेदमें आचार्यदेव श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.ने न्यायकी अनेक युक्ति प्रयुक्तियों से की है। और जब संसार ही शाश्वत है तब सांसारिक जीव, उनसे संबंधित सांसारिक व्यवहार, रीति-नीतियाँ, धर्माधर्मादि भी अवश्य शाश्वत ही रहेंगें। अतः अत्र नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव-इन छः (भेद) निक्षेपोंके बल पर शाश्वत जैन धर्मकी शाश्वतता कैसे प्रमाणित की जा सकती है यह दृष्टव्य है . (१) नामगत शाश्वतता - रागादि आंतररिपुके विजेता 'श्री जिनेश्वर' देवों द्वारा प्ररूपित धर्म वही है जैन धर्म। तदनुसार अनादिकालसे ऐसे अनंत जिनेश्वरोंने जो धर्म प्ररूपित किया वह जैनधर्म भी उन ‘जिन की अनादिकालीन शाश्वतताके कारण शाश्वत ही कहा जायेगा। (२) स्थापनागत शाश्वतता • चौतीस अतिशयालंकृत तीर्थपतियोंने-श्री जिनेश्वरोंने-जो साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका स्वरूप चतुर्विध संघकी रचना की-स्थापना की और उस संघके प्रत्येक व्यक्तिने उनसे प्ररूपित जिस धर्मकी त्रिकरण-त्रियोग की अखण्ड श्रद्धा-एकत्वतासे सम्यक आराधना करके आत्म कल्याण किया-राग-द्वेषादि आंतर्शत्रुओंको जीता वह आराध्य धर्म 'जैन धर्म' ही तो है। अतएव जैनधर्म स्थापना स्वरूपसे भी शाश्वत प्रमाणित है। (15) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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