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(३) द्रव्यगत शाश्वतता - द्रव्य-अर्थात् पदार्थसे परीक्षण करें तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, और काल-इन षद्रव्योंका जिसमें निरूपण किया गया है-इनके सर्वांगिण स्वरूपका चित्रण जहाँसे मिलता है वे हैं जैनधर्मके सिद्धांत स्वरूप द्वादशांगी। जीवका इन सभी के साथ अत्यन्त सनिकट संबंध है। इनके, जिसके जितने स्कंध-देश-प्रदेश परमाणु होते हैं (अनंत या असंख्य) उतने ही रहते हैं, उनमें कमीवृद्धि कतई नहीं होती ।
जैन सिद्धान्तानुसार (१) धर्मास्तिकाय चलने में-गति करने में सहायक है। जैसे मछलीम तैरने की शक्ति और ज्ञान होने पर भी बिना पानी तैर नहीं सकती, वैसे ही किसी भी पदार्थकी गति, बिना धर्मास्तिकायके असंभव है। (२) अधर्मास्तिकाय स्थिर होने या रहने में सहायक है। (३) आकाशास्तिकाय-पदार्थको अवकाश (जगह-स्थान) देता है (४) संसारकी सारी विभिन्नता एवं विचित्रतायें पुदगलास्तिकायके ही पारिणामिक स्वरूप है। (५) काल-व्यवहारमें भाविको वर्तमान और वर्तमानको भूतकाल बनाने के स्वभाववाला है। इन पाँचों अजीव द्रव्योंका छठे द्रव्य जीवास्तिकाय पर बड़ा भारी उपकार है। इन्हींके बल पर ही समग्र जीवास्तिकायका संपूर्ण जीवन व्यवहार निर्भर है।
इन षट् द्रव्योंमें (विशेष रूपसे जीव और पुदगलमें) कहीं नाश होता दिखाई देता है, तो कहीं उत्पत्ति। लेकिन, परिणमनशील गुणके कारण जिस पदार्थका जिस समय नाश दृष्टिगोचर होता है, तत्क्षण उसी पदार्थकी अन्य स्वरूपसे उत्पत्ति भी ज्ञातत्व है-यथाजगत तो प्रवाहसे अनादि चला आता है, किसीका मूलमें रचा हुआ नहीं है । काल-स्वभाव-नियति-कर्म-चेतन (आत्मा) और जड़ पदार्थ-इनके सर्व अनादि नियमोंसे यह जगत विचित्र रूप प्रवाहसे चला हुआ उत्पाद-व्यय-ध्रुव रूपसे इसी तरें चला जायेगा ।५.
परमकृपालु परमात्माके निर्देशित 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' रूप त्रिपदी पर आश्रित ये षट् द्रव्य अनादिकालसे ध्रौव्य रूप अवस्थित भी हैं और उत्पाद-व्यय-रूप अनवस्थित-परिणमनशील भी-जैसे-मूल द्रव्यसुवर्ण, ध्रौव्य रूपसे नित्य विद्यमान रहता है, लेकिन पर्यायरूप कुंडल, हार, बाजुबंधादि उत्पाद-व्यय रूपसे कभी अस्तितवमें आते हैं और कभी विनष्ट होते भी दृष्टिगत होते हैं। अतएव द्रव्यार्थिक नयसे जीवका अस्तित्व अनादि-अनंतकालीन है और पर्यायार्थिक . नयसे जीव-मनुष्य, तिर्यंच, नारक, देवादि नाना स्वरूपसे विद्यमान रहता है। जैसे- “यह संसार प्रवाहसे अनादि है तैसे ही सिद्ध पद भी अनादि है। जीव भी अनादिकालसे ही मोक्षपदको प्राप्त होते चले आते हैं।४० भगवान श्री महावीर स्वामी और उनके अंतेवासी, भाव-मार्दवके स्वामी, शुद्ध उपयोग युक्त, विनयवान श्री रोहाके प्रश्नोत्तर दृष्टव्य है
प्र. "पुब्बिं भंते ! लोए पच्छा अलोए, पुब्बिंअलोए पच्छा लोए ?" उ. रोहा ! लोए य अलोए य पुव्विं पेते पच्छा पेते; दोवी एए सासया भाषा अणाणु पुच्चीएसा। प्र. “पुब्बिं भंते ! जीवा पच्छा अजीवा, पुट्विं अजीवा पच्छा जीवा ?"
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