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चिकनी एवं मसृण ढलान पर उसकी मनोवृत्तियाँ मचल रही हैं-फिसल रही हैं। उस हेवानियतसे बचाने के लिए - उसे ऊपर उठाने के लिए-उस मानवीय वृत्तियों को झकझोरनेके लिए, जैन धर्मका सहारा ही आवश्यक है। क्योंकि जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो जीव मात्रके प्रति मैत्रीभाव-करुणाभाव-दयाभावकी प्रेरणाका दायक है। वेदोंकी याज्ञिकी हिंसा अथवा चार्वाकादिकी भौतिक विलासिताकी ओर झुकानेवाली वृत्तियाँ उस पैशाचिक आगमें इंधनका कार्य करेगी। मांस-मदिराको देव-देवीकी ही प्रसादी मानकर आरोगनेवालोंके दिलमें निःशंक करुणाका निर्झरतपे तवे परकी पानीकी बूंदकी भाँति सूख जायेगा। उन बुझदिल आत्माओंकी मैत्री ज्योतको प्रज्वलित करनेके लिए चिराग रूप यह भाव- “मित्तीमे सव्व भूएसु, बेरं ममं न केणइ (सर्व भूत. जीव मात्रके प्रति मेरी मित्रता है, मुझे किसीसे वैर विरोध नहीं है।) कूटकूटकर भरी इसी करुणासे और ऐसे मैत्री भावसे ही तो सच्ची अहिंसा प्रादुर्भूत होती है-जो जैन धर्मका श्वासप्राण-हार्द है, उसका सर्वस्व है। इन भावनाओंको आत्मसात करनेसे अहिंसाका पालन आप ही हो जाता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने मित्र-स्वजन-आत्मीयको कष्ट या परेशानी नहीं पहुँचा सकता। जिस पल 'मित्तीमे सब भूएसुके भाव आत्मसात हो जाते हैं उसी पलसे अपने आप ही अंतरके कोने-कोने में, जिस्मकी रग-रगमें और खून की बूंद-बूंदमें “वसुधैव कुटुम्बकम्"का गुंजन होने लगता है। यहाँ तक कि, विश्वके सर्व जीवों के लिए वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर बन जाता है। मैं' और 'मेरा' के भाव संकीर्णतासे विस्तीर्णता को-स्वार्थसे परमार्थको पा जाता है।
इन सबके मूलस्रोत स्वरूप जैन धर्मका परमपावन उपदेश भ. श्री महावीर स्वामीजी के मुखारविंदसे प्रवाहित है . "भ. महावीर एक अगाध समुद्र थे । उनमें मानव प्रेमकी उर्मियाँ तीव्र वेगसे छलकती थीं । मात्र मानव ही क्या ? संसारके प्राणी मात्रकी भलाईके लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग कर दिया था ।" ३५ -- “सवि जीव करूं शासन रसी की उदात्त भावना युक्त, त्यागी-वीतरागी प्ररूपककी प्ररूपणा स्वरूप धर्म फिर क्यों न 'मानव धर्म' कहलाये? जिसकी किसी भी काल या युगके बदले वर्तमानकाल-साम्प्रत युगमें अत्यधिक आवश्यकता है। एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सकल जीवोंके लिए एक समान उपादेय-आराध्य एवं उपास्य है वही जैन धर्म-मानवधर्म-है। (१०) निर्ग्रन्थ धर्म - श्रमण-मुनि-साधु के लिए जैनागमोंमें एवं अन्य जैनधर्म-ग्रन्थों-शास्त्रोमें 'निर्ग्रन्थ' शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है। निर्ग्रन्थ अर्थात् ग्रन्थि रहित-जिनमें राग-द्वेषादि अंतरंग मिथ्या भावोंकी क्लिष्टता नहीं है अथवा जो उन क्लिष्टताओंको दूर करनेके लिए वीतराग निर्देशित मार्गों पर अनुसरणके लिए उद्यत हुए हैं वे। अतएव वे निर्ग्रन्थ जिस धर्मकी साधना करते हैं वह जैन धर्मको इन्हीं कारणोंसे 'निर्ग्रन्थ धर्म' अथवा 'श्रमण धर्म'के नामसे भी उल्लिखित किया जाता है। (११) श्रावक धर्म - जो जिनवाणी (जिनागम-श्रुतागम-वाणी)का श्रवण करके विवेकपुरः सर उस मोक्ष मार्गकी प्राप्ति करानेवाली और मोक्षस्थानको निकटतम बनाने के आधारभूत
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