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________________ और मैत्रीभावका स्रोत बहाना, यह अहिंसाका उत्तम स्वरूप है। अर्थात् 'अप्पा सो परमप्पा आत्मवत् सर्व प्राणी जगतको देखना-समझना-वर्ताव करना। कहा भी जाता है कि- “आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् " अर्थात् स्वको जो कार्य प्रतिकूल लगे वैसा आचरण 'पर'अन्यके प्रति न आचरणा चाहिए क्योंकि उस व्यक्ति (जीव)को भी वह आचरण प्रतिकूल ही संभवित हो सकता है। इसी तथ्यको कुछ भिन्न दृष्टिबिंदुसे महान पूर्वाचार्य श्री उमास्वातिजी म.सा.ने निरूपित किया है-यथा . “प्रमत्त योगात प्राण व्यपरोपणं हिंसा"३०-- अर्थात् प्रमाद वा रागादि दोषोसें अभिभूत परके-अन्यके प्राणोंका जाने-अनजाने घात करना-हिंसा है। अतएव त्रिविध प्रयत्नके साथ जीवोंके द्रव्य व भाव प्राणों की रक्षा रूप अहिंसाकी परिपालना प्ररूपक, अहिंसाको ही जिस धर्ममें सर्वेसर्वा-सर्वोत्कृट-परमधर्म माना है वह है अहिंसा धर्म अथवा वास्तवमें क्रोधादि मनोगत परिणामसे आत्माके सदसद् विवेकादि गुणों के घात रूप भाव हिंसा ही हिंसा है। अंतरके बिना मारनेके भावकी (जीव हननरूप) आकस्मिक-कोरी द्रव्यहिंसा प्रायः अल्प कर्मबंधका कारण बनती है, क्योंकि समस्त निबिड़ कर्मबंधका पूर्णतया आधार 'भाव' परही निर्भर होता है। ऐसा न मानने पर समस्त जीवन व्यापार-सर्व क्रिया कलाप ठप हो जानेकी पूरी संभावना उपस्थित हो जायगी। हम साँस तक लेने के लिए असमर्थ हो जायेंगे-वायुकायके जीवोंकी रक्षा जो करनी है। अतएव भावहिंसा ही द्रव्यहिंसाका अधिकरण और भाव अहिंसा ही द्रव्य अहिंसाका उपकरण बनती है। जैन धर्ममें अहिंसाका अत्यन्त विशाल स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। स्व-प्राणघातक परभी करुणा बरसाना यह “जैन अहिंसा" की देन है। आप मरकर अन्यको जीवनदान देनेके लिए तत्पर रहनेके सिद्धान्तके पक्षपाती-सच्चे अहिंसक मेतार्यमुनि'-आदि जैसे अनेको उदाहरण जैन इतिहासमें स्वर्णाक्षरोंसे अंकित है। इस तरह व्यापक एवं मुख्य रूपसे अहिंसाको ही प्रधानता । देनेवाला जैनधर्म-पर्यायनाम 'अहिंसा धर्म' से प्रचलित हों, उसमें आश्चर्य क्या ? साम्प्रत जगतमें अनेक विद्वानों ने अपने हार्दिक उद्गार इसी भावको लेकर प्रकट किये हैं - (१.) जैन धर्ममें अहिंसा का स्थान . “अत्यारे अस्तित्व धरावता धर्मोमां जैन धर्म एक एवो धर्म छे, जेमा अहिंसानो क्रम संपूर्ण छे." ३१ (२.) “जैनोंका यह फर्ज है कि वे समस्त विश्वमें अहिंसा धर्म फैलायें ।" ३२ (३.) एलेकझांडर गोर्डन के शब्दों पर गौर करें - "Such is the foundation of Jaina religion and to its true fallowers no morality, no religion, his highest than the Precepts of Ahinsa, there fore, they rightly lotlion to be absolute beliver in Universal Brotherhood of all living being...- इससे झलकती है जैन धर्मकी गौरवगाथा। (९) मानवधर्म - आज मानव-मानव नहीं रहा। यों तो कहने के लिए मानव हैं, कार्यसे दानवसे भी निष्कृष्ट। मानवकी वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों ही, दानवताके चुंबकीय क्षेत्रकी ओर मानों लोहे की तरह जबरन खिंची चली जा रही है। दानवीय वा पाशवीय प्रकृति एवं प्रवृत्ति रूप (13) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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