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________________ ऋषभदेवने किया था। भगवान श्री आदिनाथजीने वही प्रकाशित किया जो अतीत चौबीसीके प्रथम तीर्थंकर श्री केवलज्ञानीसे लेकर अंतिम तीर्थंकर श्री संप्रतिनाथने प्रतिबोधित किया था। उससे भी दृष्टि विस्तृत करें तो अतीतकालकी अनंत चौबीसीके अनंत तीर्थंकरोंने उद्घोषित किया था और अनागतकालकी अनंत चौबीसीके तीर्थपति श्री पद्मनाभादि अनंत तीर्थंकर उन्हीं सिद्धांतोंको प्रस्तुत करेंगें जिन्हें वर्तमानमें 'जैन-सिद्धांत, जैन-दर्शन या जैन-धर्म' संज्ञा प्राप्त इसको प्रतिपादित करनेवाले संदर्भ आगमादि शास्त्रोमें स्थान स्थान पर मिलते हैं। लेकिन जैन धर्मकी प्राचीनता एवं शाश्वतताको आज जैन-जैनेतर, पौर्वात्य-पाश्चात्य सर्व प्राज्ञ मनीषियोंने स्वीकृति दी है। यथा-संविज्ञ शाखीय आद्याचार्य श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी महाराजजीको लिखे एक पत्रमें परिव्राजकाचार्य स्वामी योगजीवानंदजीका अभिप्राय आजतो मैं आपके पास इतना ही स्वीकार कर सकता हूँ कि प्राचीन धर्म-परम धर्म, जो कोई सच्चा धर्म है तो वह जैनधर्म है.......वेदमें जो बातें कही है, वे सभी जेन शास्त्रोमें से नमूना रूप एकत्र की हुई है।" इससे एक कदम आगे . “जैनधर्मका प्रारम्भ कब से हुआ है यह जानना असंभव है २७ अर्थात् ध्वन्यार्थ यही निकलेगा कि जैनधर्म शाश्वत है। इन्हीं भावोंको अभिव्यक्ति इन शब्दोंमें भी दी गई है . Jainism began when the world began 28 अर्थात् विश्व अनादि-अनंत भावरूप है वैसे ही जैन धर्म भी उन्हीं शाश्वत भावरूप हैं। इस तरह विद्वज्जगतमें यह बात निर्विवाद सर्व स्वीकार्य हो गई है कि प्राग् ऐतिहासिक कालमें भी अर्थात् अत्यंत प्राचीनतम कालमें भी जैनधर्म था। अतएव शाश्वत-धर्म-अनादि-धर्म जैनधर्मका पर्यायवाची मानना उपयुक्त ही है। (८) अहिंसा धर्म- “सब्वे जीवा पियाउया, सुहसाया, दुक्ख पडिकूला, अप्पिय वहा, पिय जीविणो, जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं (तम्हा) णातिवाएज्जा किंचणं" - २५ द्वादशांगीके प्रथम-आचारांगमें उपरोक्त फरमान किया गया है कि प्राणीमात्रको स्वप्राण प्रिय होते है। कोई भी जीव मृत्युको कतई पसंद नहीं करता। यहाँ तक कि, कोईभी कष्टदुःख या आधि-व्याधि-उपाधि भी नहीं चाहता। ऐसे में कोई व्यक्ति अगर किसीकी जान लेता हैमरणांत कष्ट पहुँचाता है-त्रस्त वा संतप्त बनानेवाली कोईभी प्रवृत्ति मन-वचन कायासे करता है तब वह अनीच्छनीय एवं अयोग्य कार्य करता है। ऐसी प्रवृत्तियाँ ही हिंसाका स्वरूप है। अतएव प्राणीमात्रका त्रियोग-मन, वचन, काय योग-से रक्षण करनेकी वृत्ति और प्रवृत्ति अहिंसा कहलाती है। अहिंसाके स्वरूपको व्यापक रूपसे अवलोकित किया जाय तो उसके तीन भेद दृष्टिगत होते है-उत्तम-मध्यम-अधम अथवा निष्कृष्ट । केवल कायासे किसीको न मारना - यह निकृष्ट अथवा सामान्य स्वरूप है। ॥. काया और वचन योगसे व्याधात न पहुँचाना यह अहिंसाका मध्यम स्वरूप है। III. मन-वचन-काया त्रिविध त्रिविध' अहिंसा पालन करते हुए जीव मात्रके साथ प्रेम (12 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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