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अन्य पाप व्याघ्र है तो एकान्त दृष्टि गोमुख व्याघ्र है, जो है तो क्रूर, लेकिन गोमुखके कारण पहचानना अत्यन्त मुश्किल है। यही कारण है कि जैन दर्शनने इतनी सतर्कता रखी है कि यह अनेकान्तभी कहीं-कभी एकान्त न बन जाय।
“अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः, प्रमाण नय साधनः ।
अनेकान्तः प्रमाणात्ते, तदेकान्तोऽर्पितानयात्" ।। १५ अर्थात् प्रमाण और नयको साधनेवाला अनेकान्त-प्रमाण दृष्टिसे अनेकान्त है और वही नय दृष्टिसे एकान्त बक्षता है। अतएव सदेकान्त भी उपयोगी है। सतर्कता यह रखनी चाहिए कि यह सदेकान्त कहीं (हठाग्रहसे) असदेकान्त न बन जाय।
असदेकान्ताधारित धर्म-आंशिक सत्य व अपूर्ण शुद्धताको लेकर असर्वज्ञोंकी प्ररूपणा का फल है - “णियय वयणिज्ज सच्चा सव्व नया परवियालणे मोहा ।
ते उण ण दिट्ठ समओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ।।" २० । अर्थात् स्वयंके वचनोंमें सत्य स्थापित करना-यह नयराशिका संग्रह है याने विविध मतोंका संग्रह है; लेकिन परमतका उन्मूलन करना वह मोह है-जो मिथ्याज्ञान है। क्योंकि इससे अन्य का सत्य सिद्धान्त उन्मूलन होने की शक्यता नहीं है। उसके अभावमें स्व सिद्धान्त स्थापित नहींहो सकता। इसके अतिरिक्त प्रमाणाभावमें वे नयराशि परके और स्वके सिद्धान्तकी सत्यता या असत्यताका विभाजन (निर्णय) नहीं कर सकते हैं।
एकान्त जब अन्य दृष्टिबिंदुओंका विरोधी बन जाता है केवल खंडन ही करता है, तो वह असत् रूप है; लेकिन अन्य सिद्धान्त-दृष्टियोंका विरोधी न बनते हुए, पर दृष्टिका खंडन करके स्व सिद्धान्तका मंडन-स्थापन करना सदेकान्त है, जो उपादेय भी है। संसारमें जितने
प्रकार-जितने दर्शन एवं नाना मतवाद हो सकते हैं उतने ही नयवाद हो सकते हैं। उन सबका उदार समन्वय ही अनेकान्तवाद है । . यथा
“जावइया वयणवहा, तावइया चेव होन्ति णयवाया ।
जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया ।।" २१ अनेकान्तवाद दृष्टिकोणमें कायरता या पलायनता नहीं हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक निष्पक्षता निहित है, जो जैन धर्मकी विजय वैजयन्ती लहरा रहा है। अनेकान्तवादमें पारस्परिक विरोध लुप्त होकर किंमती वैडूर्यमणिके रत्नावलि हारकी भाँति, सभी नयवाद एक-सूत्रबद्ध होकर शोभायमान बन जाते हैं।
यही कारण है कि वर्तमानमें अनेकान्त सिद्धान्ताश्रयी जैन दर्शनका, अनेकान्त दर्शन और अनेकान्त धर्म, पर्यायी माना जाने लगा है। अतएव अत्यन्त उदार, व्यापक, एवं व्यवस्थित विचारपूर्ण अनेकान्त दर्शनकी व्यावहारिक उपयोगिता ही जैनधर्म है । मानो जैनधर्म अनेकान्त सिद्धान्त स्वरूप है और अनेकान्त सिद्धान्त ही जैन धर्म है। अथवा अनेकान्त-जैनधर्मकी आत्मा है- यथा . “अनेकान्त दर्शन एटले नय अने प्रमाणोनो मेळ.............विचारवानी पद्धति जैन दर्शनमां एक
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