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सभी अपूर्ण हैं। वे सभी अभिप्राय परस्पर समन्वय से सम्पूर्ण स्वरूपको स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे समुद्रका बिन्दु समुद्र नहीं कहा जा सकता और असमुद्रभी नहीं कहा जा सकता, किंतु समुद्रका अंश ही माना जाता है, वैसे ही एकान्तिक प्रत्येक दर्शनको सर्वांगी या संपूर्ण दर्शन नहीं माना जा सकता। उसे अनेकान्तरूपी सर्वांगी दर्शनका अंश अवश्य माना जा सकता है। " उदधाविव सर्व सिन्धवः समुद्रीर्णांस्त्वयि नाथ ! दृष्ट यः
यथा
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न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ।। "
जैसे सर्व नदीयाँ समुद्रमें समा जाती हैं, वैसे हे प्रभु ! सर्व दृष्टियाँ (दर्शन) तुझमें समा जाती हैं। जैसे विभिन्न नदियों में समुद्र नहीं दिखता वैसे उन दृष्टियों में आप विशेष रूपसे नहीं दिखते हो।
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अनेकान्त दर्शन द्रव्यके व्यापक स्वरूपके खजानेको खोलनेवाली कुंजी (चाबी) तुल्य है।
अनेकान्त दृष्टिसे अवलोकते हुए आत्माकी पर्यायावस्थामें उच्छिन्नता और अनाद्यनन्त धारावस्थामें अविचछिनता स्पष्ट रूपसे दृष्टिगोचर होती है आत्मा द्रव्यरूपसे अनादि अनंत, अनुत्पन्न - अविनाशी होनेसे उसकी नित्यता निःशंक है, लेकिन उसे 'कूट- नित्य' नहीं कह सकते, क्योंकि जन्म मरणादि अवस्थाओंमें बाह्याभ्यंतर परिवर्तनों के कारण आत्मा अनित्य भी है। इससे उसे एकान्तिक नित्य या अनित्य मानना भ्रम है-गलती है। अनेकान्तसे उसे सापेक्षनित्यानित्य मानना ही योग्य एवं उचित है 'मोक्ष'एकान्तिक अद्वैत स्वरूप है, लेकिन मोक्षमार्गकी साधना अनेकान्त दृष्टिसे अनेकमार्गीय है। यही कारण है कि सिद्धों के जो पंद्रह प्रकार बताये गये हैं उनमें एक भेद है 'अन्यलिंग सिद्ध' अर्थात् जैनेतर व्यक्ति भी आत्मा पर लगे सकता है यथा अष्टकर्म के संपूर्ण क्षय करने पर सिद्धगतिका स्वामी बन "गिहिलिंग सिद्धभर हो, बक्कलचीरीय अन्त्रलिंगम्मि "
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“ सेयबंरो य आसंबरोय बुद्धो वा तहय अत्रो वा समभाव भावी अप्पा लहई मुक्खं न संदेहो ||"
ऐसे ही सर्व पदार्थों में भिन्नाभिन्न भेदाभेद नित्यानित्य, सदसदादि विरोधाभास एक साथ समान रूपसे दृष्टव्य बन जाते है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि जिसके अनेक अंत है वह अनेकान्त है, अर्थात् एक ही उद्गम या उद्द्भवित द्रव्यको विभिन्न
अतएव अनेकान्तसे सर्व क्लेश- कलह, वाद
दृष्टिबिंदु रूप अंतोसे जानना वह अनेकान्त है। विवाद- वितंडावाद आदिका अपने आप शमन हो
सकता है।
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कदाग्रह या दुराग्रह युक्त एकान्त एक बड़ा भारी पाप है - मिथ्यात्व है। वह हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म सेवन या परिग्रहसे भी बड़ा भारी पाप इसलिए माना जाता है कि इन पाँच पापों में अधर्म बुद्धि मानता हुआ जीव उससे डरकर दूर रहता है या उनमें सुधार करनेको उद्यमवंत बना रहता है, लेकिन दुष्ट एकान्त-दृष्टि तो धर्मका चश्मा पहनकर जीव को अंध या विपरित दृष्टा बना देती है, जिससे आत्म स्वरूप और हिताहितका विवेक नष्ट हो जाता है।
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