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छे अने ते पद्धति अनेकान्तवादनी । आज कारणथी अनेकान्त ज जनतत्त्वनो आत्मा छे." २२ । (५) शुद्धधर्म --- धर्मास्तिकाय', अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय' अरूपी द्रव्य है और जीव भी अरूपी है; अंतर केवल इतना है कि एक उत्तर-दूसरा दक्षिण-अर्थात् प्रथम तीन जड़ अरूपी हैं और जीव चैतन्य अरूपी। जीव शुद्ध तत्त्व स्वरूप है। नित्यावस्थाको प्राप्त, कर्मरहित जीवकी अवस्था ही शुद्धावस्था और सिद्धावस्था कहलाती है। इस शुद्धावस्थाकी प्राप्ति शुद्ध धर्मसे ही शक्य है। जीवको पूर्ण शुद्ध बनाने के लिए पंचमहाव्रता दि पालनरूप चरणकरणानुयोगमें जिन अनुष्ठानों के स्वरूपको निरूपित किया गया है, वही आगमदृष्ट, सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म-शुद्ध धर्म है। “सर्वांगिण सत्य है जहाँ, शुद्ध धर्म भी है वहाँ” उक्त्यानुसार शुद्ध धर्मकी नींव एवं गति-प्रगतिका आधार केवल सर्वांगिण सत्य ही है, जिसकी प्ररूपणा केवलज्ञानीके अतिरिक्त अन्य कोई भी नहीं कर सकता है। क्योंकि, मोहादि दोषोंसे पराङ्मुख केवली-वीतरागी-शुद्ध आत्मा ही उस शुद्धावस्था प्राप्त करानेवाले मोक्ष मार्गकी प्ररूपणा करके शुद्ध स्वरूप प्रकट करवा सकती है।
जिस धर्ममें 'याज्ञिकी हिंसा'को धर्म माना हो अथवा जिसमें आत्माका अस्तित्व ही क्षणिक माना हो या जहाँ वैभव विलास और भोगासक्तिमें डूबना ही धर्म माना हो-उन धर्मोंको धर्म मानना कहाँ तक उचित होगा ? अन्यके प्राणोंका हनन या पर प्राण पीडन वा अनाचारों के सेवनको अगर धर्म मानेंगे तो अधर्म कहाँ जाकर स्थान पायेगा ? सत्य तो यह है कि धर्म, जीवमात्रको शांति-संतोष-सुख प्रदान करें। जीवको हिंसा या विलासितादि अशुभ भावोंसे अशुभ कर्मबंध होता है। प्रत्युत जीवदया-अहिंसादि पंचमहाव्रतादि युक्त तपोमय जीवनसे शभ भात उदीयमान होते है. जो वद्धिंगत होते होते शद्ध भावमें परिणत हो जाते हैं और जिससे पुण्यानुबंधी पुण्य प्राप्ति होते हुए अंतमें निर्जरासे' सर्व कर्मक्षय होनेसे आत्मा सिद्धमुक्त हो जाती है । ऐसे धर्मके पाँच लक्षण माने गए हैं .
१. व्यवहार शुद्धि . (शुद्ध परिणामों की पूर्णता), २. विचार शुद्धि (मोक्ष प्राप्तिकी तीव्रतम अभिलाषा) ३. अंतःकरण शुद्धि - (निष्कपट भावोंकी चरमसीमा) ४.साधन शुद्धि(उत्तरोत्तर ध्यान धाराकी सहज सिद्धता) ५. लक्ष्य सिद्धि - (केवल मोक्ष प्राप्तिका ही लक्ष्य)
अतएव आत्माको महात्मा और महात्मासे परमात्मा-पूर्णात्मा-शद्धात्मा बनाने में पथ प्रदर्शक एवं सहायक धर्म ही शद्धधर्म-जैनधर्म है । (६) विश्वधर्म - उर्ध्वलोक (स्वर्गलोक), अधोलोक (नरकलोक) एवं मध्यलोक (तिच्छालोक) के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय', सूक्ष्म से बादर' तक, चारों गति-देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकके सकल जीवोंको कल्याणकारी, हितकारी, उपकारी ऐसे धर्मका स्वरूप जिसमें निहित है; चराचर स्वरूप चौदह राजलोकके सर्व जीवोंका उपादेय, सर्वत्र व्याप्त धर्म-विश्वधर्म है .
“शिवमस्तु सर्वजगतः परहित निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषा प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकाः ।।" २३
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