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________________ ऐसे छद्मस्थों के लिए जो धर्म प्ररूपणा की है वह स्यात्-अंश रूप ही है। 'स्यात्' शब्दका प्रयोजन ही प्रायः छद्मस्थोंकी अपूर्णता का परिचय करवानेके लिए हुआ है। पूर्णज्ञान . अनंतज्ञान समुद्र है तो छाद्मस्थिक ज्ञान उसके एक बिन्दु तुल्य है, क्योंकि केवलज्ञान अक्रमिक-समसमयमें संपूर्ण है, जबकि छाद्यस्थिक ज्ञान क्रमिक बोध कराता है। ‘स्यात् 'के सहारे ही द्रव्यका संपूर्ण स्वरूप वर्णित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि, एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका या सर्व द्रव्योंका कार्य नहीं कर सकता। एक ही सिद्धान्त समस्त विश्वके सर्व सिद्धान्तोंका आवरक नहीं बन सकता; अतएव प्रत्येक सिद्धान्त अपने आपमें, अपने स्वभावसे परिपूर्ण होने पर भी समग्र सिद्धान्तोंके संदर्भमें 'स्यात्' ही है। विश्वके सर्व सिद्धांतोंमें, प्रत्येकमें गुण-दोषकी तरतमताके कारण सापेक्षता है, संपूर्णता कहीं भी नहीं है। अपूर्णज्ञानी-महान वैज्ञानिक आइन्स्टाइनके सापेक्षवादकी भाँति, केवली प्ररूपित सापेक्षवाद अपूर्णतासे 'अपूर्णताका' नहीं, लेकिन पूर्ण-निरपेक्ष तत्त्वको लक्ष्य करके सापेक्षतासे पूर्णअपूर्णका तुलनात्मक अभ्यास है। विवेचनात्मक एक ही सिद्धान्त स्वरूपका 'स्यात् के सहारे विभिन्न दृष्टि बिंदुओंसे, भिन्नभिन्न सत्योंका भिन्नाभिन्न स्वरूपसे ज्ञान कराना ही स्याद्वादका चमत्कार है। वस्तुके दर्शनमें भिनभिन्न मनुष्यों द्वारा भेद दृष्टिगत होता है, उसका कारण केवल वस्तुकी अनेकरूपता ही नहीं बल्कि उन भिन्न भिन्न मनुष्यों के दृष्टिबिंदुओंकी विविधता भी कारणभूत है। इसलिए कदाग्रहयुक्त एकान्तवादके विषको सर्वथा निराश करके सभीका समन्वय करनेवाला स्याद्वाद संजीवनी है-महौषधि रूप है। स्याद्वादमें मृदुभाव है-ग्राहकभाव है-प्रेमभाव है; अतएव यह निःशंक कह सकते हैं कि खंडनात्मक शैलीको खतम करने के लिए ही स्याद्वादका अवतरण हुआ है। दुःखात्मक भावोंको सुखात्मक स्वरूपमें पलट देनेकी कला केवल स्याद्वादके पास ही है। अंततोगत्वा “स्याद्वाद सर्वतोमुखी दर्शन है" १३ __“जैन दर्शनमें स्याद्वादका स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि जैन दर्शनको 'स्याद्वाद दर्शन'भी कह सकते “वास्तवमें स्याद्वाद-जन दर्शनका प्राण है। जैनाचार्यों के सारेही दार्शनिक चिन्तनका आधार स्याद्वाद ही है।१४ . स्याद्वादके भंग (प्रकार)मेंसे सभी विरोधी धर्मयुगलोंको लेकर सात ही भंग होते हैं। वचनादिके भेदोंकी विवक्षासे श्री भगवती सूत्रमें अधिक भंगोका निरूपण हुआ है लेकिन मौलिक भंग सात ही है। स्याद्वादके सिद्धान्तकी इस सप्तभंगीसे किसी भी सिद्धान्त या द्रव्यको आसानीसे अभ्यस्त किया जा सकता है। यथा - स्यात् अस्ति ___ --- कथंचित है-यह पदार्थ अतीतके सद्भाव से पुराना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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