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जैन सिद्धान्त पारगामी पूर्वाचार्योंके मतानुसार धर्मभी कहीं अविच्छिन्न रूपसे प्रवाहित होता है, तो कहीं कालचक्रके तृतीय-चतुर्थ आरे में प्रादुर्भूत होता है। इस तरह जनरेटरकी भाँति धर्म प्रकाश सर्वदा प्रकाश प्रदाता है। जैसे जनरेटर मंदगतिसे चलता है तब प्रकाश मंद, और तेजगतिसे चलने पर तेज़ हो जाता है, वैसे ही धर्म प्ररूपक-अरिहंत परमात्माकी विद्यमानतामें धर्म-प्रकाश तेज़-जाज्वल्यमान और अविद्यमानतामें मंद होता रहता है; फिरभी धर्मका स्वरूप अनवरत-अविच्छिन्न रूपसे जीवों पर निरन्तर उपकार करता रहता है एवं सकल कर्मोंसे मोक्षरूप सिद्धि गति का लाभ कराता है। अतएव वह सत्धर्म कहा जाता है । (३) स्याद्वाद धर्म - स्याद्वाद दर्शन विश्वैक्य-विश्वशान्ति-विश्व संस्कृति के त्रिवेणी संगमकी महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है। निष्पक्ष-दुराग्रहरहित-वैचारिक उदात्तता एवं उदारता सहितवितंड़ावाद मुक्त मंडनात्मक शैलीसे-संविधानात्मक पद्धति से सर्वधर्म सद्भाव सौहार्दभाव-सहिष्णुता और सदाशयता रूप प्रशस्त मार्गकी प्ररूपणा करनेवाला केवल स्याद्वाद दर्शन है; क्योंकि स्याद्वाद दर्शन सर्वांगी दर्शन है ।
सर्वांग संपूर्ण ऐसे सर्व तत्त्वोंको लक्ष्य करके आंशिक-देशतत्त्वका निरूपण 'स्यात् 'के सहारे करना चाहिए, अर्थात् समसमयमें एक ही द्रव्यके सभी प्रर्याय-गुण स्वरूपादिका निरूपण केवलज्ञानी भी अपने वचनयोग (वाणी)से नहीं कर सकते हैं। इसलिए उसकी प्ररूपणा 'स्यात्' की सप्तभंगी के सहारे ही ठीक न्यायपुरःसर होसकती है। यही कारण है कि सर्वज्ञ भगवंतोने राग-द्वेषसे दूर शांत-समभावमें स्थित करने के लिए विश्वके जीवोंको स्याद्वाद जैसे मौलिक दर्शनकी भेंट की है। इसी सत्यको गुजरातीके प्रसिद्ध साहित्यकारने अभिव्यक्ति देते हुए लिखा है-“स्याद्वाद आपनी सामे समन्वयनी दृष्टि खड़ी करे छे विविध दृष्टिबिन्दुना निरीक्षण विना कोईपण वस्तु संपूर्ण रूपमा समजी नथी सकाती स्याद्वाद.......आपणने विश्वनु केवी रीते अवलोकन करतुं ते शिखवे छे. "१० _ 'स्यात्' अर्थात् 'सर्वथा नहीं'-ऐसा भी नहीं और 'सबकुछ'-ऐसा भी नहीं, लेकिन विरुद्ध तत्त्वों को 'स्यात्'- 'आंशिंक या कुछ' के आधार पर समन्वय करके समझना-समझाना-स्याद्वादका रहस्य है," जिससे एक ही द्रव्यमें एक-अनेक, रूपी-अरूपी, जीवाजीव, सतसत्, नित्यानित्य, भेदाभेद, द्वैताद्वैत; सगुण-निर्गुण, सापेक्ष-निरपेक्षादिका तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है। उलझनोंको सरल-सुंदरतम-सत्य स्वरूपसे सुलझानेवाला स्याद्वाद है।
___ “स्याद्वाद जैन धर्मका अजेय किल्ला है, जिसमें वादी-प्रतिवादीके मायामय गोलोंका प्रवेश अशक्य है।" - पं.राममिश्रजी रामानुजाचार्यजीके ये विचार इसी तथ्यको प्रस्तुत करते हैं।
स्याद्वाद अंधे (छद्मस्थ')की लकड़ी या तत्त्वालोक दृश्यमान करवानेवाला बिलोरी काच - चश्मा है-अर्थात् दृष्टको दृष्टव्य बनानेवाला केवल स्याद्वाद ही है। स्याद्वाद अर्थात् गुणग्राहकता अथवा पूर्णतत्त्व स्वरूप परमात्माको दृष्टिपथ पर रखकर सर्व तात्त्विक सिद्धांतो को सापेक्षतया समझना वा यथास्थित निरूपण करना स्याद्वाद है; क्योंकि पूर्ण केवलज्ञानी भगवंतोने अपूर्ण
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