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________________ परमात्माकी शरण ली है। " परमार्थ प्रदर्शित करनेवाला श्लोक दृष्टव्य है “ अकारेण भवेद्विष्णु, रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः । हकारेण हरः प्रोक्तस्तस्यान्ते परमपदम् ||३९ ॥ अर्थात् 'अर्हन्' शब्दकी आदिमें जो 'अ'कार है वह विष्णुवाचक: 'र'कार में ब्रह्मा अवस्थितः 'ह'कारसे 'हर'का कथन और 'न'कार परमपदका वाचक है । अतएव इसका परमार्थ होगाब्रह्मा, विष्णु, महादेव युक्त परमपद 'अर्हन्' में ही व्यवस्थित विशिष्ट रूपसे स्थित है। यह तो हुई सर्व दर्शन सम्मत परिभाषा । आगे बढ़ते हुए आपने जैन सिद्धान्तावलम्बित अर्थ प्रकाशित करते हुए लिखा है। कर लिया है ऐसे 'अर्हन् 'अर्हन्' शब्द का -- Jain Education International " “ अकारादि धर्मस्य, आदि मोक्ष प्रदेशकः । स्वरूपे परमं ज्ञानमकारस्तेन उच्यते ॥८०॥ रूपी द्रव्य स्वरूपं वा दृष्ट्वा ज्ञानेन चक्षुषा । दृष्टं लोकमलोकं वा रकारस्तेन उच्यते ॥८१॥ हता रागाश्व द्वेषाश्व, हता मोह परीषहाः । यथा हतानि येन कर्माणि हकारस्तेन उच्यते ॥८२॥ संतोषेणाभि संपूर्णः प्रातिहार्याष्टकेन च । ज्ञात्वा पुण्यं च पापं च नकारस्तेन उच्चते ||८३|| अर्थात् सामान्यसे मोक्ष प्रदेशक परमज्ञानके स्वरूपका प्रारम्भक आदि धर्मके प्ररूपक होने से 'अ'कार कहा। 'अ'कार का लक्ष्यार्थ- 'अक्षर' 'अक्षर' 'अक्षर' रूप याने जो क्षरता-विनष्ट नहीं होता ऐसा केवलज्ञान है; अथवा 'अक्षर' यह परमात्मा प्ररूपित सम्पूर्ण श्रुत रूप द्वादशांगीको प्रकट करनेवाला आधारभूत स्वर, व्यजंन रूप मूल, अर्थात् वर्ण ही है क्योंकि अक्षर या वर्णोंका समूह ही शब्द (कर्ता क्रियापदादि रूप) शब्दों का समूह सूत्र सूत्र - श्लोक - वाक्योंका समूह अध्ययन, अध्ययनों का समूह ( अंग- उपांगादि ) आगम और आगमोंका समूह है द्वादशांगी । जैसे केवलज्ञान स्वयं अक्षर है वैसे ही केवलज्ञानके प्रकाशसे जिसका निरूपण हुआ है वह श्रुतज्ञानका मूल स्वरूप स्वर और व्यंजनरूप वर्ण अक्षर ही कहा जाता है। अतएव केवलतानाधारित प्ररूपित द्वादशांगीका मूल अक्षर और उन अक्षराराधनाका फल अ-क्षर ऐसे केवलज्ञानकी प्राप्ति है। किसीभी एक अक्षर-वर्णके उच्चारण या चिन्तवनसे न कोई विकल्प सिद्ध होता है न किसी भावकी प्राप्ति, इसलिए निर्विकल्प केवलज्ञानकी भाँति वर्ण अक्षरभी निर्विकल्प है, जो अपने आपमें परिपूर्ण होता है। 'अकार मूल है आदि है बीज है केवलज्ञानका और केवलज्ञानका बीज होनेसे केवलज्ञान ही है। आगे बढ़कर यह भी कहें कि अकारमें केवलज्ञान निहित है " सत्य है । लोक अथवा अलोकके दृष्ट अदृष्ट रूपी वा अरूपी द्रव्योंको ज्ञानरूप नेत्रोंसे जिसने देखा 3 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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