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उस प्रतिबोधका अनुगमक कहलाते हैं जैन।
'जिन' शब्द 'जि (जय)' अर्थात् जितना-विजय पाना-धातुसे व्युत्पन्न हैं। राग-द्वेष-मोहादि आंतररिपुके विजयशील व्यक्तियों में ही उपरोक्त आत्मिक गुणों का प्राकट्य होता हैं-उन्हीं को 'सर्वज्ञता प्राप्त होती है। वे ही ऐसी उत्कृष्ट आत्मशुद्धिकी प्रकृष्ट साधनाका शुद्धमार्ग चिह्नित कर सकते हैं। उन्हींको अर्हन्-पारंगत-अरिहंत, त्रिकालवित्-क्षीणाष्टकर्मा-परमेष्ठि-अधीश्वर-शंभुस्वयंभु-भगवन्-जगत्प्रभु-तीर्थंकर-तीर्थकर-जिनेश्वर-स्याद्वादी-अनेकान्तवादी-अभयदः-सार्व-सर्वज्ञ-सर्वदर्शीके वली-देवाधिदेव-बोधिदः पुरुषोत्तम-वीतराग-आप्तादि नामोंसे पहचाने जाते हैं और उनके द्वारा प्ररूपित प्रशस्त धर्म- जैनधर्म-है । उसे एक ही वाक्यमें प्रदर्शित किया है
"मोक्ष रूप सागरमा मली जनार नदीनं नाम ज जैनधर्म"-राजयश सूरि' जैन धर्मके पर्यायवाची अन्य नाम :
पूर्ण सचराचर ब्रह्मांडमें विभिन्न दृष्टिबिंदुओंसे जैनधर्मके विभिन्न गुणवत् भिन्नभिन्न पर्यायवाची , नामोंका प्रचलन हुआ है --- यथा - प्ररूपक आश्रयी नाम --- आर्हत् धर्म, (सैद्धान्तिक) द्रव्याश्रयी --- सत् धर्म, स्याद्वाद धर्म, अनेकान्त धर्म, शुद्ध धर्म, क्षेत्राश्रयी नाम ... विश्व धर्म, कालाश्रयी नाम --- शाश्वत धर्म भावाश्रयी नाम --- अहिंसा धर्म, मानव धर्म, आराधकाश्रयी नाम ... निर्ग्रन्थ धर्म, श्रावक धर्म । १. आर्हत धर्म --- अर्हन द्वारा उपदिष्ट वह आर्हत धर्म । 'अर्हन् 'के पर्यायवाची हैं --- 'अहँ', 'अरिहंत' आदि। 'अर्हन्' शब्दका लक्ष्यार्थ हैं, "अभेद ज्ञान प्राप्त कर्ता” अर्थात् आत्माके सकल कर्मक्षय रुप क्षायिक भावके प्रापक; और शब्दार्थ है “भेदज्ञान प्राप्त कर्ता" याने आत्मा और देह-जो भिन्न होने पर भी क्षीर-नीरवत् अभिन्न सदृश हो गये हैं, यह ज्ञात करके, उन्हें अलग करना है, ऐसे भेदज्ञान के प्रापक; एवं अन्यार्थ है- (निश्चयार्थ) - 'राग द्वेषादि अंतरंग शत्रु हननेवाले जबकि (व्यवहारार्थ) चार धातिकर्मके सम्पूर्ण क्षय करने पर केवलज्ञान - केवल दर्शन के प्रापक।
'अरिहन्त' शब्द, दो शब्दोंसे बनता है .. अरि और हन्त । 'अरि' अर्थात् शत्रु- जो द्रव्य (वस्तु) रूप है, अतः द्रव्यानुयोगका विषय है। 'हन्त' अर्थात् हनना-नाश करना जो क्रिया रूप है, अतः चरणकरणानुयोगका विषय है। अतएव प्रथम-द्रव्यानुयोगसे अंतिम-चरणकरणानुयोगोंको स्वमें समाये हुए 'अरिहंत' चारों अनुयोग' निहित सम्पूर्ण श्रुतज्ञान स्वरूप ही है।
विश्वमें केवल 'अर्हन' ही ऐसे हैं जिनका हनन नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'अर्हन्' सत् तत्त्व है, और जो हणाया जाता है वह तो असत् तत्त्व होता है। अतएव उन अर्हनका आश्रित, कभी जन्म-मरणादि द्वारा हने नहीं जा सकते क्योंकि उन्होंने भव-भ्रमणांत हेतुका अंत
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