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जैन धर्म
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श्री वीतरागाय नमः
पर्व - प्रथम
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एवं भ. महावीरकी परम्परामें
श्री आत्मानंदजी म. का स्थान
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसंगमग्यं
सावयमस्मरमनीशमनीहमिद्धं,
सिद्धिशिवं शिवकरं करणव्यपेतं,
जैनधर्म
सामान्य परिचय एवं परिभाषा :
अनादि अनंतकालीन संसारमें चौर्यासी लाख जीवयोनिके माध्यमसे अनंत कालचक्रोंसे और अनंत कालचक्रों तककी जीव सृष्टिमें जीव परिभ्रमण करता जा रहा है और करता जायेगा। इस व्यवहारमें जीवोंको अनेक परिमंडलोसे गुजरना पडता है। तदनुसार उन निमित्तों को पाकर और अपनी आत्माके विविध भावोंके कारण वह विभिन्न प्रकारके आचरण आचरता है। यही कारण है कि तदनुसार जीव शुभाशुभ कर्मबन्ध करता है और उसे सुख-दुःखादि भावों से भोगता है। इन पारिणामिक निमित्तों से होनेवाले कर्म बन्धनों से बचाव करके, उनसे रक्षा करते हुए, उनसे अलग रहनेकी जो प्रेरणा करता हैं; एवं पूर्व कर्म बन्धनोंसे मुक्त होनेका शाश्वत सुख पाने का मार्ग दिखलाता है, वह धर्म जैनधर्म है। इसके लिए अनेक पर्यायवाची नाम प्रयुक्त हो सकते हैं- व्युत्पत्त्यार्थसे वह केवल जैन धर्म ही है ।
अन्यथा इसका स्वरूप ऐसे भी प्रकट कर सकते हैं जो अष्ट प्रातिहार्य आदि बारह प्रमुख गुणों से युक्त, दानांतरायादि अठारह प्रमुख दोषों से विमुक्त, चौतीस अतिशयों से अत्यन्त शोभायमान, पैंतीस गुणोंसे अलंकृत वाणीके स्वामी, चतुर्विध संघके स्थापक, त्रिलोकी जीवों से पूजित, अनंत ज्ञान दर्शन- चरित्र - वीर्यादि अनंत गुणोंके धारक तीर्थंकर नामकर्मके उदय प्राप्त जितेन्द्रिय आत्मा- वे हैं जिन जिनेश्वर देव' - और उनके द्वारा प्ररूपित धर्म है जैनधर्म |
अर्थात् उपरोक्त गुणालंकृत व्यक्ति जिनेश्वर उनसे प्ररूपितधर्म, जैनधर्म और उस प्ररूपणानुसार
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श्रीमज्जनं जितरिपुं प्रयतः प्रणमि" ।
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श्री भगवतीसूत्र
श्री अभदेवसूरिकृत टीका मंगलाचरण
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