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संबलसे ज्ञानार्जनका शुभारम्भ मंदिर-उपाश्रय या कदम्ब वृक्षके नीचे बैठकर सारस्वत आदि मंत्र पूर्वक करना चाहिए। षड़ विंशति स्तम्भः--विवाह विधि--इसके अंतर्गत विवाह योग्य वर-कन्या, शुद्धि, गुण, आयु, आदिके साथ विवाहके प्रकारों की चर्चा करते हुए वर्तमानमें प्रसिद्ध और स्वीकार्य प्राजापत्य विवाहविधि-आर्यवेद मंत्रोच्चार पूर्वक विस्तारसे दर्शायी है। जिसमें प्रमुख रूपसे मातृ-कुलकरकी स्थापना, बारात चढ़ाने की विधि, हस्तबंधन, अग्निन्यास, लाजाकर्म (मंगलफेरा), कन्यादान, करमोचन, मदनपूजा, क्षीरान्न भोजन, सुरत प्रचार, मातृ-कुलकरादिका विसर्जन आदि अनेक विधि आर्यवेद-मंत्रपूर्वक प्ररूपित करते हुए अंतमें वासक्षेपपूर्वक गुर्वाशीष प्राप्तिका विधान किया गया है। सप्तर्विशति स्तम्भः-व्रतारोपण संस्कार--इस स्तम्भमें सम्यक्त्व-मिथ्यात्वका स्वरूप, सुदेव-गुरुधर्म और कुदेव-गुरु-धर्म---स्वरूप; मिथ्यात्वके पांच प्रकार, सम्यक्त्वके--पांच लक्षण, पांच भूषण, पांच दूषण, महत्व--मनुष्य भवकी दुर्लभता, भक्ष्याभक्ष्य विचार, बाईस अभक्ष्य स्वरूपादि, व्रतारोपणकी आवश्यकता और माहात्म्यादिका वर्णन करते हुए मार्गानुसारी अथवा इक्कीस गुणधारी-श्रावक, या आचार संपन्न-छत्तीस गुणधारी आचार्य-गुर्वादिके सम्मुख (उपनयन संस्कारविधि सदृश समवसरणकी साक्षी युक्त) सम्यक्त्व सामायिक व्रत अंगीकार हेतु जाते हैं, और गुरुभी, योग्य शिष्यको आगमविधि अनुसार विविध मंत्र-सूत्र-स्तोत्रादिसे विभिन्न आदेश-वासक्षेपआशीर्वाद पूर्वक सम्यक्त्व सामायिक व्रतोच्चारकी विधि करवाते हैं। अष्टविंशति स्तम्भः--व्रतारोपण संस्कार (देशविरति)--पूर्व व्रतारोपणवत् बारह व्रतोच्चारणमें भी नंदि, चैत्यवंदन, कायोत्सर्ग, वासक्षेपादिपूर्वक नंदिक्रिया करने के पश्चात् द्वितीय दंडकोच्चार करके तीन बार नमस्कार महामंत्रपूर्वक, देशविरति, सामायिक दंडक उच्चारपूर्वक बारह व्रत यथाक्रम अथवा अनुकूलतासे न्यूनव्रत-यावज्जीव या मर्यादित समयके लिए अभिलाप सहित उच्चारण पूर्वक धारण करवाये जाते हैं। (यहाँ प्रत्येक व्रतमें करणीय-अकरणीय, आचरणीयअनाचरणीयकी धारणा विधिकी स्पष्टता भी की गई है। पश्चात् श्रावक योग्य ग्यारह प्रतिमा (वर्तमानमें चारका वहन शक्य-शेषका व्ययच्छेद) का वर्णन विधिपूर्वक दर्शाया है। एकोनविंशति स्तम्भः--(उपधान तप) व्रतारोपण संस्कार--जैसे साधुओंको श्रुतग्रहणके लिए योगोद्वहन करना आवश्यक है वैसे गृहस्थको भी पंचपरमेष्ठि मंत्र, इपिथिकी, शक्र-चैत्य-चतुर्विंशतिश्रुत-सिद्ध-स्तव आदि सूत्र ग्रहणके लिए उपधानोद्वहन करना होता है-उसीका विधि इस स्तम्भमें निरूपित किया गया है। श्रावकको अवश्य आचरणीय 'उपधान'की व्याख्या करते हुए 'नीशिथ सूत्र के उपधान प्रकरणाधारित संपूर्ण विधि यहाँ उद्धृत की गई है। श्री गौतमकी पृच्छाके प्रत्युत्तरमें श्री महावीर स्वामीने स्वयं उपधान वहनमें ही जिनाज्ञा पालन और आराधना प्ररूपी है; बिना उपधानके श्रुतग्रहण-जिन, जिनवाणी, श्री संघ एवं गुरुजनोंकी आशातना रूप-भवभ्रमणका हेतु है। श्रुतग्रहणके पश्चात् भी उपधान वहनसे सम्यक्त्व प्राप्ति सुलभ होती है। यहाँ
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