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________________ श्रुताभ्यासकी प्रविधि, गुण योग्यता, समय, स्थान, भावादि; आक्षेपणि आदि चार धर्मकथा, देवगुरुकी त्रिकालिक आराधनाका लाभालाभ और माहात्म्यका वर्णन किया गया है। अंतमें उपधान तपकी पूर्णाहुतिके पश्चात् तत्काल या एकाध दिनांतर में उपधानके उद्यापन रूप माल्यारोपण करनेकी विधिकी प्ररूपणा करते हुए इस स्तम्भको पूर्ण किया है। त्रिंशति स्तम्भः-- व्रतारोपण संस्कार - (श्रावककी दिनचर्या)- यहाँ व्रतधारी श्रावककी दिनचर्याका आलेखन करके उसी प्रकार अप्रमत्तचर्या आचरनेवाले भव्यजीवके आत्म कल्याणकी वांछा की गई है इसका विस्तृत स्वरूपसे विवेचन ग्रन्थकारके 'जैन तत्त्वादर्श' ग्रंथ, परिच्छेद ९ धर्म तत्त्व स्वरूप निर्णय में किया गया है।) यहाँ 'अर्हत्कल्प' पर आधारित स्नात्रपूजा विधि मंत्रोच्चारपूर्वक दर्शायी है जो वर्तमानमें प्रचलित नहीं है। एकत्रिंशत् स्तम्भः इस स्तम्भमें अंतिम समय जानकर श्रावकको समाधि मरण प्राप्ति हेतु अंतिम आराधना करवाने की विधि दर्शायी है जिसके अंतर्गत चतुर्विध संघ समक्ष गुरु द्वारा नंदिकी विधि करवाकर बारह व्रत उच्चारण (बारह व्रतधारीको पुनः स्मरण ), पूर्वके अनंतभव और वर्तमान भवमें सकल जीवराशिके किसी भी जीवकी किसी भी प्रकारसे विराधना, अपराध, अठारह पाप स्थानक सेवनके लिए मन वचन कायासे निंदा गर्हा और क्षमायाचना एवं जिसे जयणापूर्वक जिनपूजादि कार्यों में लगाये हों उनकी अनुमोदना - अभिनंदन; इस भवके त्रिकरणयोगके शुभ व्यापारकी अनुमोदना, अशुभकी निंदा-गर्हा; व्रतधारीको बारह व्रतके १२४ अतिचारोंकी याद करवाकर आलोचना और प्रायश्चित्त; सर्व जीवों से क्षमाका आदान-प्रदान, सर्व जीवसे मैत्रीभाव, चार मंगल शरण्योंका शरण अंगीकरण, १८ पापस्थानकोंका व्युत्सर्जन, कभी सागारी या निरागारी अनशन स्वीकार, चतुर्विध संघसे क्षमा याचना पूर्वक दान-संघ सत्कार - पूजादि उत्तम कार्य करना करवाना अनुमोदना करनी और अंत समय समाधि के हेतु निरंतर श्री नमस्कार महामंत्र स्मरण-रटणपूर्वक देहत्याग आदिकी प्ररूपणा की गई है । तदनन्तर शबकी अग्नि संस्कार विधि भस्मका जलप्रवाह सूतक विचारादिके वर्णनके साथ सोलह संस्कार वर्णन समाप्त होता है। अंतमें सोलह संस्कार इस ग्रन्थ में ग्रथित करनेका हेतु, लौकिक व्यवहार रूप प्ररूपणा और आगम सम्मतताका उल्लेख करके जिनाना विरुद्धके लिए नम्रतापूर्वक क्षमायाचना करते हुए इस स्तम्भको पूर्ण किया है। द्वात्रिंशत स्तम्भः- जैनधर्मकी प्राचीनताका निर्णय इस स्तम्भमें जैनधर्मकी प्राचीनताको प्रतिपादित करने के लिए ग्रंथकारने अथक परिश्रम करके अनेक प्रमाण पेश किये है यथा-वेदो में जैन मतोल्लेखके अभावको वेदोंकी अनेक शाखाके नष्ट होनेके कारण असिद्ध शंकराचार्यादि द्वारा वेदों के अर्थो में उलट-पुलट; अनेक जैनाचार्यों द्वारा अपने ग्रन्थों में (उद्धृत) प्ररूपित अनेक वेदश्रुतियोंका वेद आरण्यक पुराण उपनिषदादिमें प्राप्त होना; व्यासजी कृत 'ब्रह्म सूत्र में प्ररूपित सप्तभंगीका खंडन महाभारत, मत्स्य पुराण, यजुर्वेद संहिताका महिधर कृत भाष्य तैत्तरीय Jain Education International 174 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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