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________________ एकविंशति स्तम्भः-अनुप्राशन--कुलगुरुके पास श्रीजिनमंदिरमें भगवंतका बृहत्स्नात्रविधिसे पंचामृतस्नात्र करवाकर अमृताश्रव मंत्रसे श्रीगौतमस्वामी, कुलदेव-देवी आदिको नैवेद्य चढ़ाकर, बालक. बालिकाकी ६ या ५ मासकी उम्र होने पर शुभ मुहूर्तमें, उनके मुखमें आर्यवेद मंत्र तीन बार पढ़कर अन्नप्राशन (अनाहार प्रारम्भ) करवायें। द्वाविंशति स्तम्भः--कर्णवेध-शुभ मुहूर्तमें अमृतामंत्र-मंत्रित जलसे माँ-बेटे को सधवाओं द्वारा स्नान-पौष्टिक-मात्राष्टक पूजनादिके पश्चात् कुलदेव-स्थान, पर्वत, नदी तट या घरमें पूर्वाभिमुख बिठाकर आर्यवेद मंत्रपूर्वक कर्णवेध-धर्मगुरुसे वासक्षेप ग्रहण और अंतमें घर जाकर कर्णाभरण पहरायें (यथोचित दान-भक्ति भी करें) त्रयोविंशति स्तम्भः-चूडाकरण (मुंडन)-शुभ मुहूर्तमें कुलाचार करके, बालकका बृहत् स्नात्रविधिकृत स्नात्रजलसे शांतिदेवी मंत्रपूर्वक सिंचन-कुलगुरु द्वारा सात बार आर्यवेद मंत्र पढ़कर नापित द्वारा मुंडन-पंचपरमेष्ठि स्मरणपूर्वक स्नान-विलेपन-वस्त्रालंकारसे विभूषित बालकको धर्मगुरुके पास वासक्षेपपूर्वक आशीर्वाद ग्रहण करवाने का विधान किया है। चतर्विंशति स्तम्भः--उपनयन संस्कार--इसका अर्थ, माहात्म्य, आगमाधारित जिनोपवीत स्वरूप, (एक-दो तीन अग्रवाले) जिनोपवीतका कारण, धारक व्यक्तिकी योग्यता, धारण करने का कारण, परमतमें यज्ञोपवीतका स्वरूप आदिको स्पष्ट करते हुए ज्योतिष विषयक ग्रहादिके प्रभावादिकी चर्चा करके शुभमुहूर्तमें व्रत ग्रहणकी प्रेरणा दी है, साथ ही उपनयन संस्कार विधि-वेशपूजनरात्रि जागरिका, स्नान-मुंडन-वस्त्र परिवर्तन स्थापित समवसरण स्थित अर्हत् बिम्बोंकी प्रदक्षिणानमस्कार पूर्वक-स्तोत्र, सूत्र, मंत्रादि की विधिपूर्वक अनुष्ठान करते हुए गुरु द्वारा मंत्र प्रदान और उसी वक्त मंत्रका माहात्म्य और प्रभावका स्पष्टीकरण होता है। तत्पश्चात् जैन परंपरानुसार व्रतादेशके लिए, व्रतधारी, योग्य वेश धारण करके जिनपूजा-गुरुवंदनादि करते हुए, पंचपरमेष्ठि स्मरणपूर्वक गुरुसे अनुज्ञाकी याचना करने पर गुरु, शिष्यको आदेश-समादेश, आज्ञा-अनुज्ञा प्रदान करते हैं। उस समय उन व्रतोंका स्वरूप, ब्राह्मणादि वर्णानुसार करणीय-अकरणीय आचारादिका स्व-स्व वर्णानुसार उपदेश-आदेश-समाचारीका कथन करते हैं। अंतमें गुरु-शिष्य जिनमंदिरमें चैत्यवंदना करते हैं। जिस ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यने आठ, दस, बारह वर्षकी उम्रमें व्रत ग्रहण किये हैं, वह सोलह वर्ष पर्यंत पालन करके (अथवा यथाशक्ति पालन करके) व्रतको विधिपूर्वक विसर्जित करते हैं और गृहस्थ वेश धारण करते हैं। उस समय गुरुजी उपनयन विषयक व्याख्यान करके उसके सुष्ठु प्रकारसे ग्रहित जिनोपवीत आजीवन सद्धर्मवासनामय रहनेके आशिष देते हैं। शिष्यकी विनतीसे गृहस्थानुकूल अभयदानादि धर्म स्वरूप दर्शाते हैं। अंतमें शुद्र वर्ण शिष्यके लिए 'उत्तरीय न्यास' विधि और व्रतभ्रष्ट-अज्ञानी-कुलहीनादिके लिए 'बटू करण विधि' प्ररूपित करके इस स्तंभको पूर्ण किया है। पंचविंशति स्तम्भः--अध्ययनारम्भ विधि--शुभ मुहूर्तमें गुरु भ.के वासक्षेप-मंगल आशीर्वचन रूप (172 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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