SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विणयाहीया विज्जा देंति फलं इह परे य लोगम्मि । (बृह. भा. ५२०३) - विनयपूर्वक ग्रहण की गई विद्या लोक-परलोक सर्वत्र फलवती होती है । साध्वी जी ने विशाल शोध प्रबन्ध की रचना में चारित्रचूड़ामणि, परमारक्षत्रियोद्धारक परम पूज्य गच्छाधिपति जैनाचार्य श्रीमद् विजयइन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी महाराज तथा सर्वधर्मसमन्वयी अध्यात्मयोगी प.पू. आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय जनकचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के आशीर्वाद को सम्बल माना है, यह साध्वी जी की विनम्रता का प्रतीक है । शोध प्रबन्ध का अर्थ ही है कि विषय का सर्वतोभावेन मूल्यांकन कर मौलिक व नवीन अनुसन्धान प्रस्तुत किया जाएँ। इस ग्रन्थ में पढ़े-पढ़े मौलिकता, विषय की गम्भीरता तथा नूतन निरूपण प्रकट होता है। द्वितीय पर्व में श्री आत्मारामजी महाराज का जीवन तथ्य प्रस्तुत करते हुए लेखिका ने लिखा है - "सत्य के गवेषक, सत्य के प्ररूपक, सत्य के प्रचारक, सत्य के विचारी - आचारी - प्रचारी एवं सत्य के संगी-साथी, अमर-आत्मा-जिनका अन्तरंग सत्य से लबालब भरा था तो बहिरंग व्यक्तित्व के परिवेश में सत्य के ही सुर प्रवाहित थे; सत्य की सुरीली लय पर सत्य का नर्तन था । ऐसे सत्य की ज्वलंत जयोतिर्मय विभूति-जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द---- ।" प्रस्तुत ग्रन्थ में न केवल भाषा सौष्ठव स्पृहणीय है अपितु प्रसंगानुरूप भावाभिव्यक्ति भी सहज तथा शिष्ट है। अनुसन्धानकी के भावों पर भक्ति की नैसर्गिक छाप है, स्पष्ट है कि साध्वी जी महाराज अपने पूज्य पूर्वज गुरुदेव का गुणानुवाद कर रही हैं । यदि श्री आत्मारामजी महाराज को मूल्यांकन की दृष्टि से देखें तो आप श्रीने तो साहित्य स्रष्टा के रूप में भी पर्याप्त ख्याति व सम्मान पाया है और व्यक्तित्व का यह पक्ष भी स्वयं में वन्दनीय व अनुकरणीय है । साहित्य सृजन का वर्णन करते हुए लेखिका ने लिखा है"उन दिनों ज्ञान-शून्य-भ्रान्त जनता के मनोमालिन्य की शुद्धि के लिए अपनी लेखिनी को मुखरित करते हुए मौखिक उपदेश की अपेक्षा बहुव्यापक एवं चिरस्थायी बनाने योग्य उपदेश को अक्षरदेहरूप "नवतत्व संग्रह" जैन तत्वादर्श' (आदि) जैसे ग्रन्थों की रचना को प्रकाशित कराया ।" जैनों के साधर्मिक वात्सल्य का विश्लेषण करते हुए "जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर'' ग्रन्थ में मार्गदर्शन करते हुए गुरुदेव लिखते हैं कि श्रावक का बेटा धनहीन या बेरोजगार हो तो उसे रोजगारी में लगाना या उसे जिस कार्य में सिद्दत हो - आवश्यकता हो - उसमें मदद करना सच्चा साधार्मिक वात्सल्य है।" इस स्थल पर लेखिका की बेबाक टिप्पणी अनुमोदनीय है - "युगनिर्माण की महत्वपूर्ण कुंजी घुमाते हुए आपने सामाजिक एकता का ताला खोल दिया । ऐक्य में छिपी प्रचण्ड ताकत से पूरे समाज को अभिज्ञ किया ।'' कहना न होगा कि पूज्य गुरु वल्लभ को समाज सुधार, सामाजिक एकता तथा साधर्मिक वात्सल्य जैसे गुण अपने गुरुदेव से धरोहर के रूप में प्राप्त हुए थे। श्री आत्माराम जी महाराज के पद्य साहित्य का विवेचन करते हुए लेखिका साध्वीजी ने आचार्य मम्मट, भामह, पं. विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि भाषाविदों के साथ अन्य हिन्दी तथा आंग्ल भाषाविदों का उनकी मत्यनुसार काव्य की परिभाषा का जिक्र किया है किन्तु अन्त में निष्कर्ष के रूप में लेखिका द्वारा दी गई परिभाषा अत्यन्त सारगर्भित तथा सटीक है - "मनुष्य की जिज्ञासा एवं आत्माभिव्यंजना की अदम्य इच्छा से मानव जीवन की विशद व्याख्यान्तर्गत प्राकृतिक सौन्दर्य का रसात्मक-नैसर्गिक-हार्दिक निरूपण - जिसमें पाठक सांसारिक सर्व परिस्थितियों से ऊपर उठकर काव्य घटनाओं को आत्मसात् करके आत्मानुभूति पाता है; जब उसकी मनोदशा ब्रह्मसाक्षात्कार किए हुए योगी सहश हो जाती है - वही काव्य है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy