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प्रस्तावना
श्री आत्मानन्द दासप्तति में मालाबन्ध काव्य के टीकाकार ने एक अर्थ में लिखा है -
'दिग्जेता योगाभोगानुगामी जीयात् ।' -'दिशाओं और विदिशाओं में मुक्ति के आनन्द को देने वाले, जैनधर्मकी शिक्षा को फैलाने वाले, पर्वतों की तरह अटल निश्चय रखने वाले, अतएव धर्मशास्त्रों के बताए हुए मार्ग से पदमात्र भी न टलने वाले, मोक्षमार्ग की विद्या के रंग में अच्छी तरह रंगे हुए तथा मोक्षमार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय पाने वाले, अपने जीवन सुधारकों से भी स्तुति किए हुए................मुक्तिक्षेत्र की चिन्ता को मिटाने वाले ब्रह्मवर्चस्वी श्री विजयानन्द सूरीजी विजय प्राप्त करें ।'
मानव एक चिन्तनशील प्राणी है अत: विविध राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय चिन्तकों, लेखकों, कवियों तथा विद्धान आचार्यों ने अपने चिन्तन-मनन व विवेक से आचार्य प्रवर श्रीमद विजयानन्द सूरीश्वरजी महाराजके विराट् व्यक्तित्व व कृतित्व का मूल्यांकन अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है तथापि ऐसा ज्ञात होता है कि आचार्यप्रवर का तथा उनके कार्योंका वर्णन सरल व सहज नहीं है । वास्तविकता यह है पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज का चिन्तन अत्यन्त व्यापक था तथा उनके विवेचन की दृष्टि अत्यन्त पैनी और सूक्ष्म थी। उन्होंने विश्व के विभिन्न धर्म, दर्शन विचारधाराओं एवं महापुरुषों के जीवन को अनाग्रहवृत्ति से बौद्धिक कसौटी पर कसा और "जैन तत्वादर्श' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के मंगलाचरण में लिखा
स्यात्कार मुद्रितानेक सदसदभाववेदिनम् ।
प्रमाणरूपमव्यक्तं भगवंतमुपास्महे ।। तत्कालीन भारत की राजनैतिक बागडोर अंग्रेजों के हाथ में थी। अज्ञानता के कारण जैन धर्म और संस्कृति का मौलिक स्वरूप सामान्यजन के समक्ष पूर्णतः स्पष्ट न था ऐसे में पूज्य आचार्य श्री जी ने निर्भय होकर अपना पक्ष प्रस्तुत किया । महर्षि दयानन्द तथा स्वामी विवेकानन्दजी उसी समय के विचारक चिन्तक व मनीषी थे । दोनों ने एक स्वर से श्री आत्माराम जी महाराज के प्रकाण्ड पाण्डित्य तथा ओजस्विता को स्वीकारा था । स्वामी विवेकानन्दजी ने शिकागो से अपने मित्रों को लिखे एक पत्र में लिखा है...... जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में श्री वीरचन्द राघवजी गांधी ने सभामें अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से दिए गए प्रवचन से मुझे व उपस्थित सभी धार्मिक प्रतिनिधियों को प्रभावित किया: सभी उनकी शान्त-शीतल वाणी से चमत्कृत है । मैं तो बार-बार उस गुरु की प्रशंसा कर मस्तक झुकाता हूँ जिन्होंने ऐसा विन्दान् शिष्य तैयार कर यहाँ भेजा तथा जैनधर्मको विश्वमंच पर प्रतिष्ठित किया........."
ऐसे पूज्य आचार्यप्रवर के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विदुषी साध्वी श्री किरणयशा श्रीजी महाराज ने म.स. विश्वविद्यालय बड़ौदा से पी. एच. डी. उपाधि हेतु शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया है । सम्पूर्ण शोध प्रबन्ध नौ पर्वो मे विभक्त किया गया है। साध्वीजीने बड़े ही विनम्र भाव से इस ग्रन्थ के विषयमें अपना अभिप्राय स्पष्ट किया है - "--- अक्षुण्ण और उज्ज्वल कीर्तिकलेवरधारी, वीर शासन के अभिन्न अंग आचार्यप्रवर श्रीमद विजयानन्द सूरीश्वरजी म. के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अनुसन्धान के माध्यम से जैनधर्म के विभिन्न अंगो को प्रदर्शित करके सूरीश्वर जी के उत्कृष्ट योगदानरूप उनके उपकारों का स्मरण करते-करवाते आपके ऋण से उऋण होने का क्षुल्लक प्रयत्न मात्र किया है।" लेखिका साध्वीजी का उपरोक्त आत्मकथा उनके विनयभाव को प्रकट करता है । विनय विद्या की प्रथम सीढी है । विनयपूर्वक ग्रहण की गई विद्या के विषय में बृहत्कल्पभाष्य में कहा है -
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