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प्रस्तुत ग्रन्थ में पूज्य गुरुदेव के कविरूप का वर्णन करते हुए लिखा गया है - "महाकवीश्वर श्री आत्मानन्दजी के काव्य भक्तिरस से लबालब भरे हैं क्योंकि वे भक्त पहले थे कवि बाद में निर्मलभावजल भरपूर मानससर में "आतम हंस'' मुक्ति-मौक्तिक का चारा चुगते हुए विहार कर रहा है।" यहाँ पूज्य गुरुदेव दारा रची गई पंक्तियाँ उल्लेखनीय है -
अनहद नाद बजे घट अन्दर, तुंही तुंही तान उच्चारे रे
तेरो ही नाम रटत हूं निशदिन आलंबन छारे रे शरण पड्ये को पार उतारो ऐसो विरुव तिहारे रे.. | श्री शंखेश्वर... | गुरुदेव श्री का समस्त काव्य साहित्य गेय है। उसमें संगीतात्मकता है, लयात्मकता है, रागात्मकता है तथा भावप्रवणता भी है। आपका समग्र साहित्य गद्य, पद्य; गीत-पद-मुक्तक स्तवन आदि सब जैन साहित्य की ही नहीं वरन् सम्पूर्ण साहित्य जगत् की बहुमूल्य धरोहर है। विदषी साध्वीजी ने गुरुदेव की प्रतिभा को साहित्यिक जगत् में स्थापित करते हुए अदभुत उपमाएँ दे डाली है - "दिग्गज विददर्य और अनुपम फनकार श्री आत्मानन्दजी म.सा. के संगीत में श्री हरिभद्र सूरीश्वर जी म.सा.का सत्याभियान, महामहोपाध्याय श्री यशोविजयजी म. सहश दार्शनिकता एवं अनवरत पुरुषार्थ, श्री आनन्दघनजी म.का. अवधूत एवं परमात्म भक्तिकी मस्ती..... सन्त तुलसीदास जीका सम्पूर्ण समर्पण भाव श्री भारतेन्दुजी की तरह ध्येय के प्रति एकनिष्ठ लगन के सप्तसुरों का सन्धान अनुभूत होता है ... " प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में नवयुगनिर्माता, पंजाबदेशोद्धारक, न्यायाम्मोनिधि आचार्यदव श्रीमद विजयानन्द सूरीश्वर जी महाराज के विराट् व्यक्तित्व का सांगोपांग वर्णन विवेचन अध्ययन तथा अवगाहन का प्रयास किया गया है एवं पढ़े-पदे अनुसन्धानात्मक दृष्टिकोण रखा गया है । अपने जिस लक्ष्य को लेकर लेखिका - चली हैं उसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। गुरुवल्लभ समुदाय के साधु-साध्वी ही नहीं अपितु सम्पूर्ण श्रमण श्रमणीवृन्द के लिए यह एक गर्व का विषय है । शोध प्रबन्ध के नायक तो अज्ञान तिमिर में भटकते हुए मानव समाज के भास्कर सम तेजस्वी है । सत्य की साधना करने वाले वे महान साधक यद्यपि स्वयं सिद्ध थे तदपि इस ऐतिहासिक प्रामाणिक पुराण से आगत पीढ़ियाँ पूज्य आचार्यप्रवर विषयक ज्ञान को सांगोपांग रूपेण प्राप्त कर सकेगी इसका मुझे विश्वास व हर्ष है।
- विजय नित्यानंद सूरि
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