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________________ " जैसे हटवाले मीले, मीलके बीछर जात, तैसे जग आतम संजोगमान दिलना कोन वीर मीत तेरी, जाको तू करत हेरो, रथेन बसेरो तेरो, फेर नहीं मिलना"....उ. बा. ३९. "ढोरवत रीत धरी, खान पान तान करी, पूरन उदर भरी, भार नित वह्यो है, पीत अनगल नीर, करत न पर पीर, रहत अधीर कहा शोध नही लयो है । वाल विन पल तोल, भक्षाभक्ष खात घोल, हरत करत होल पाप राच रह्यो है । " शींग पूंछ दाढी मूंछ, बात न विशेष कुछ आतम निहार उछ, मोटारूप कयो है ।”...उ.बा.३७ विवेकहीन मनुष्यके व्यवहारको किस कदर जानवरकी श्रेणिमें पहुँचाया है है ! और अब मनुष्य जीवनमें ब्रह्मचर्य का स्वरूप वर्णित किया है, उसे देखें, “नव वाडें शुद्ध ब्रह्म आराधे, अजर अमर तुं अलख री । औदारिक सूर कामजालसे, अपने आपको रख री । सिंहादिक पशु भय सब नासे, ब्रह्मचर्य रस चख री ।" जीवके भवभ्रमणको नाट्यगृह एवं नाटकके प्रतीकात्मक ढंगमें पेश किया है “गति चारु ए नाटक थानक, विषम कर्म गति भूप, लाख चौरासी सांग धारावी, निरखे नव नव रूप... " ह. लि. स्त. २० साधनाके क्षेत्रमै 'योग'का अद्भूत महत्व गाया है। अपने योग शास्त्र में श्री हेमचंद्राचार्यजी म.ने अष्टांग योगका अद्भूत निरूपण किया है, जिसे गुरुदेवने इस प्रकार अपने काव्यमें गूंथा है " अंग अष्ट चित्त जोग समाधि, पाप पंक सब झर रे झर रे...." नवपद पूजा-५ “योग असंख्य ही जिनवर भाषित, नवपद मुख्य करी....” नपपद पूजा- ९ “ मन वच कायाके व्यापारे, योग यही मुख माना रे...बारह भावना सज्झाय - आश्रव भावना "जोग समाधिमें बसे ध्यान काल है सोय दिवस घरी के कालको, ताते नियम न कोय । सोबत बैठत तिष्ठते, ध्यान सवि विध होय; तीन जोग थिरता करो, आसन नियम न कोय विषम प्रासाद पर, चरबेको मन कर, रजुकुं पकर नर सुखसे चरतु हैं । , ऐसो 'धर्मध्यान' सौध चरवेको भयो बोध, वाचनादि 'आलंबन' नाम जुं कहतु है ।” ...ध्या. स्व. १७८ इस प्रकार 'केवलज्ञान' प्राप्तिमें बाधक - 'आर्त', 'रौद्र' और साधक- 'धर्म', 'शुकल' चारों ध्यानके स्वरूपको दिखा कर 'केवलप्राप्ति एवं शैलेशीकरणसे 'मोक्षप्राप्ति की प्रक्रियाका सुंदर निरूपण किया है । “तीन गुप्ति से योगको जीते, हरे परमाद कुरानी । अपरमादे पाप योगकुं, बिरतीसे सुख जानी ।" (बा.भा.स. ८) ऐसे ही संसार स्वरूप और उससे मुक्तिके सफल उपाय ऐसे ही अनेक जाते हैं। Jain Education International “जग तरु बीज भूत करमजे; खेरू करे सुख पाये । सो निर्जरा दोय भेद सुणीजे सकामाकाम बताये रे । " (बा. मा. स. ९) स्थानों पर योगपरक प्रतीक अष्टदृष्टियोग, भावनात्रिक, पंचज्ञानयोग आदि पाये ऐतिहासिक जैन इतिहासने चौबीस तीर्थंकरोंके शासनकालमें होनेवाले असंख्य आत्माओंके ऐतिहासिक उल्लेख दिए हैं । इनमें से श्रीआत्मानंदजीम ने भी अनेकोंके प्रतीकात्मक उपयोग अपने काव्यमें किए “राजमति निज वनिता तारी, नव भव प्रीत निभाइ री, है हलधर रथकर मृग तुम नामे, ब्रह्मलोक सरजाइ सखी री..... गजसुकुमाल लाल तुम तार्यो भववन सगरे जराइ री ए उपगार गिनू जग केता, करुणासिंधु सहाइ सखी री...." ह.लि. स्त. ११ "वीर पिता सिद्धारथ राम, जिन-पूजा कुं लक्षदान....सूयगडांगे आईकुमार"...ह.लि. स्त. २४ "अश्वसेन अधिराजीके नंदन भंजन कर्मकठार हो। गर्म थकी प्रभु मारी निवारी, ठारी अघ सब भार हो... 73 बीस स्था. पूजा-१२ ........ .... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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