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________________ "रंभा रमण अनंग संग बहु केल कराये संध्या रंग बिरंग देख छिनमें बिरलाये...." चतु. जिन स्त.१३ "दीन हीन अब देख, करो वेग सहाइ, चातक ज्यूं घनघोर,सोर निज आतम लाइ.." चतु. जिन स्त.१३ "तुम गुण कमल भ्रमर मन मेरो, उडत नहीं है उडाइ। तृषत मनुज अमृतरस चाखी, रुचसे तप्त बुसाई।".... चतु. जिन. स्त.१३ “जिम तरु फूले चैत भुंग, आतम संतोषे अधिक रंग। बिन पीड़े ले मकरंद चंग, होके आनंद गोचर कर लीना।"....नव. पू.-५ इस पूजा काव्यमें मुनि भगवंतको गौचरी ग्रहण करनेकी विधि-तरुफूल-मकरंद और चैत,गके प्रतीकोंसे दर्शायी है तो साधु कर्मक्षयकी साधनामें कैसा है-इसे योद्धाके प्रतीक द्वारा पेश किया है “कषाय टार पण इंद्री रोध, षट्काय पार मुनि शुद्ध बोध; संजम सतरे मन शुद्ध सोध, मचे रणमें जोध, मनमें नहीं दीना।"....न.प.५. "प्रवचन अमृत जलधर बरसे, भविमन अधिक उल्लास रे। कुमति कुपंथ अंधजन जे ते, सूकत जैसे जबास रे....।" बीसस्था. पूजा-३ अंतर्चक्षुके उद्घाटनसे मनकी स्थिरताके अनुभवको झूलेके प्रतीकसे प्रस्तुत किया है“हरि विक्रम नृप सेवना,अंतर दृग खोला; आतम अनुभव रंगमें,मिटे मनका झोला ।"..बीसस्था. पूजा-९ “कुमति धूक सब अंध हुए हैं,भूले जडमति करणीने भवि बंदो अपूर्व ज्ञान तरणिने"...बीसस्था.पूजा-१८ "तपगच्छ गगनमें दिनमणि सरिसे, विजय सिंह विरंगी ।" बीसस्था.पूजा-कलश आत्म स्वरूपके लिए राकाके पूर्ण चंद्रकी प्रतीक योजना “चिदानंद सुखकंद, राकाके पूरण चंद, आत्म सरुप मेरे, तूं ही निज भूप है...." नव.सं.पृ.१६२ वैयक्तिक (मानवीय)-परमात्माके साथ अभेदता या सख्यभावके अथवा पतिरूपके माधुर्य गुण भरपूर भावको मानवीय प्रतीकोंके माध्यमसे प्रस्तुत किया है । “जो तुम जोगी, हुँ मैं जोगन, चरण से, करी सुध तन मन नास करुंसब ही भव बनं, मोहि पार उतारोजी....नेम हमको न विसारोजी" । ह.लि.स्त-१९. कर्म क्षयकी उत्कट तमन्नाने परमात्माको धन्वंतरी वैद्यका रूप दे दिया है . "तुं मुझ साहिब वैद्य धन्वंतरी रे......."अथवा “जो रोगी होत है तनमें,तो वैद्यो धारत मनमें,हुं रोगी,वैद्य तुम पूरो,करो रोग सब चकचूरो ।".....ह.लि.स्त.९ परमात्माके प्रति अविहड़ प्रीतको जताते हुए गुनगुनाते हैं । "जिस पद्मणी मन पिउ बसै, निर्धनीया हो मन धन की प्रीत; मधूकर केतकी मन बसै, जिम साजन हो विरही जन चित्त । अनंत जिणंद सु प्रीतड़ी, नीकी लागी हो, अमृत रस जेम"....चतु.जिन.स्त.-१४ शुद्ध सम्यक्त्वरहित या हीन-क्रिया-धर्म आदि जीवको उपकारी नहीं होते उसका स्वरूप वर्णित है । "सुंदर सिंगार करे, बार बार मोती भरे, पति बिन फीकी नीकी, निंदा करे लोक रे । वदन रदन सित, दृग विन फीके नित, पग रीते रित कित भूषनके थोक रे.... तप जप ज्ञान ध्यान मान सन्मान सब, सम्यक् दरस बिन जाने सब फोक रे"...द्वा.भा.पृ.१६४ “महागोपण सत्थ निर्यामक बलि महा माहना रे"........ नवपदपूजा - प्रथम पूजा जीवन व्यवहार एवं व्यापाराधारित प्रतीक"याम सुमति तप कुठारे,करम छिल्लक छेलीया जारके सब मदन वन घन,मोखमारग फैलीया ।"...चतु... जिन.स्त.२२ "तेल तिल संग जैसे अगनि वसत संग रंग है पतंग अंग एक नाही किन हैं,.... दधि नेह, अभ्र मेह, फूलमें सुगंध जेह, देह गेह चित एह एक नही भिन्न है, आतम सरूप धाया, पुग्गलकी छोर माया, आपने सदन आया, पाया सब घिन है ।" बा.भा.१६२ (72) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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