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________________ मनोद्भावनाओंको अप्रत्याशित रूपमें अभिव्यंजित किया है। इस काव्य प्रकार-'उलटवाँसी'-का उपयुक्त एवं स्वस्थतापूर्वक उपयोग करके आचार्यश्रीने अंतरके भाव संकेतोंकी सफल अभिव्यक्ति की है-यथा "दुषम कालमें कुमति अंधेरो, प्रगट करे सब चोरी। श्री चिदानंद विडारोने, कुमति जो मेरी।"....बीस स्था. पूजा-१९ तथा-"भावरोगकी औषधि,अमृत सिंचनहार;भवभय ताप निवारणी,अरिहंत पद फलकार।"..बीस स्था.पूजा-३. एवं-“मुक्तिवधुकी पत्रिका, वरणी श्रीजिनदेव, सुधी तत्त्व समजे सही, मूढ़ न जाने भेव"। स.भे.पू.-७. जगत स्वरूपको स्पष्ट करते हुए 'बारह भावना सज्झाय' में गाते हैं "रचना इसकी किन ही न कीनी, नहीं धार्यो किन कर रे; स्वयं सिद्ध निराधार लोक ये, गगन रहयो ही अचर रे....भवि लोकस्वरूप समर रे सम." सज्झाय-१० जैन. दर्शनके गूढ रहस्यमयी सिद्धान्तोंको व्यक्त करते हुए श्री महावीर स्वामीके स्तवनमें गाते हैं। 'कुमति कुटल अनादिकी वैरन, देखत तुरत डरी; चारों ही दासी पूत भयंकर, हुए भसम जरी।। बावीस कुमति पूत हठिले, नाठे मदसें गरी; दोउ सुभट जर मूरसें नासे, छूट्यो मदन मरी।। शिववधू वशीकरणको नीकी,तीनों रत्न धरी आतम आनंदरसकी दाता,वीरप्रभु दान करी।।".आ.वि.स्त.पृ-६९ पौराणिक प्रतीक-पौराणिक पात्रों के चित्रण-माध्यमसे आत्माको सीख देते हुए जो प्रयोग हुए हैं "द्वारामती नाथ निके, सकल जगत टीके, हलधर भ्रात जीके, सेवे बहुरान है। हाटक प्राकार करी रतनको शीश जरी, शोभत अमरपुरी, सा जन महान रे। पुन बीते हाथ रीते, संपत विपत लीते, हाय साद रोत कीते जो निज थान रे। सोग भरे छोर चरे, वनमें विलाप करे, आतम सीयानो, काको करता गुमान रे।” (उ.बा.४६.) सांस्कृतिक- "राय बेल नव मालिका कुंद मोगर तिलक जाति मचकुंद केतकी दमनक सरस रंग, चंपक रसभीनो रे.... इत्यादिक शुभ फूल रसाल, घर विरचे मनरंजन लाल जाली झरोखा चितरी शाल, सुर मंडप कीनो रे.... गुच्छ झूमखां लम्बा सार, चंदुआ तोरण मनोहार, इंद्रभुवनको रंगधार....स.भे.पू.११ यहाँ परमात्माको बिराजित करनेके लिए जो गृह सजाते हैं, इसका वर्णन किया गया है। भारतीय संस्कृतिका प्रमुख त्यौहार 'होली',रंग डालने और फाग खेलनेका-मनभावन त्यौहार । इसके आलंबनसे सुरीश्वरजी मोह-सुभटसे लड़कर श्रुतज्ञानको हृदयस्थ करनेके अरमान अभिव्यक्त करते हैं. “अपने रंगमें रंग दे हेरी, हेरी लाला, अपने रंगमें रंग दे.... सात हि विकथा दूर निवारी, मोह सुभट संग जंग दे। श्रुतके सातों अंग रंगीले, मुझ हृदयमें टंग दे....हेरी...." बीस स्था, पूजा ४. “सील सज तनु केसरी, पिचकारीयाँ शुभ भावना ज्ञान मादल ताल सम रस, राग सुध गुण गावना; धूर झड़ी करमकी, सब सांग सगरें त्यागीया, नेम आतमरामका, धरिध्यान शिवमग लागीया"२२ प्राकृतिक- “चंद बदन भवि जन मन मोहे, तूं त्रिभूवन शिरताजजी" ह.लि.स्त-४७ "जूं पारस लोहता खंडे,कनक सुध रूपकुं मंडे ऐसो जिनराज तुं दाता,हीवे क्यूं ढील है त्राता।".ह.लि.स्त-९ 'एह संसार पलाल पूंजको,दूर कर्णको अग्नि झारो, यह संसार विकट अटवीमें,काम-क्रोध-दुःख देतहै भारो”..ह.लि.स्त.२८ “यह दुनिया है धुंध पसारो, आपने स्वरूप फलूंगी"....ह.लि.स्त.४२ “भये जगमें सुरतरु कंदा, के सिमरो धर्मन आनंदा"....ह.लि.स्त-६२ "रंग पतंग जो फीका छिनमें, मूरख क्यों भरमाया"....ह.लि.स्त-६४ "तीन छत्र प्रभुके पर कहकर त्रिभुवन स्वामी जनावे रे चामर कहत है नीचे झुक कर ,उर्ध्वगति तुम जावे रे भामंडल पूंठे प्रभु दर्सण, तम मिथ्यातम नावे रे...." ह.लि.स्त. २९ HTHHHHHHH 71) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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