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आलंकारिक होनी चाहिए। अतः प्रतीकवाद अंतर्गत स्थूल भाव चित्रणोंका झुकाव गूढ रहस्यमय सूक्ष्मताकी ओर ढलकर अस्पष्टवादिताके स्वरूपमें विकसित हुआ। यही कारण है कि पाश्चात्य-नव्य प्रतीकवादी काव्यमें रहस्यमयी प्रवृत्तिके कारण अस्पष्टता, अनिश्चितता, सादृश्यताको लेकर गुणादिका केवल बौद्धिक संकेत पर आधारित संक्षिप्त सांकेतिकता, प्रभाव क्षमताकी शिथिलता आदिके दर्शन होते हैं। इसमें संदेह नहीं कि इसका उपयोग अधिक व्यापक भूमि पर नहीं हो सकता। - १० फिर भी यथाशक्य 'विस्तृत एवं स्वस्थ प्रयोगों के आधार पर इन प्रतीकवादी रचनाओंमें प्रयुक्त पौराणिक, शास्त्रीय, दार्शनिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक, वैयक्तिक (मानवीय), सामाजिक, राष्ट्रीय, ऐतिहासिक, संख्यापरक जीवन व्यवहार एवं व्यापारादिको स्पर्शित प्रतीक संवेदनाकी गहराई और तीव्रताको संक्षेपमें प्रस्तुत कर सकते हैं।
अब,श्रीआत्मानंदजी महाराजजीके 'काव्य'नभांचलमें प्रतीक सितारोंकी चमककी चारुताका आह्लाद प्राप्त करेंगे, जिन्होंने प्रायः सभी प्रकारके प्रतीकोंका सफल प्रयोग किया है। शास्त्रीय-(आगमिक)-जैनागमों एवं पूर्वाचार्यों विरचित जैनशास्त्रोंमें अध्यात्म विषयक विस्तृत निरूपण अंतर्गत परमात्माका स्वरूप, आत्माका बाह्याभ्यन्तर स्वरूप, आराधनाकी भिन्न भिन्न प्रणालियाँ व शैलियाँ, देवगुरु एवं धर्म-कर्मादिका विवरण तो प्राप्त होता ही है, साथ ही साथ आत्मासे संलग्न चिंतन-मनन-निदिध्यासन; ध्यान एवं योगादिमें सहयोगी आलम्बन या निमित्तरूप षद्रव्य, चौदह राजलोक एवं तत्र स्थित जीवोंके कार्य-कलाप, कला-व्यापार, क्रिया-विधान और प्राप्तव्य लक्ष्यकेन्द्र-मोक्ष आदिका भी विशद विवेचन मिलता है। जिन्हें कविवरश्रीने प्रतीक विधानके रूपमें अपनी रचनामें भावोंको सबल बनानेके लिए उपयोगमें लिए हैं।
'बारह भावना स्वरूप में कविश्रीने जैन-भूगोल अर्थात् चौदह राजलोकके स्वरूप (संस्थान) का वर्णन किया है- “जामाधार नराकार भामरी करत यार लोकाकार रूप धार कया करतार रे.... “आदि अंत नही संत स्वयं सिद्धरूप ए तो षट् द्रव्य वास एही आपत उचारने।"
नवतत्त्व संग्रह-बारह भावना स्वरूप पृ.१६३ परमात्माकी प्रतिमा पूजनीय होनेके आगमिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं“उववाइ, राइपसेणीकार, जिवाभिगम पन्नति धार, जिन प्रतिमाका कथनसार, मुक्ति फल पावे रे...." ह.लि.स्त-२४
मूल, नियुक्ति, वृत्ति चूर्णी, भाष्य,-टीका-यह पूर्वाचार्य विरचित जैन शास्त्रोंकी पंचांगी कही जाती है। यह जैन दर्शनका निधि है, जिसके आधार बल पर अंग-उपांग रूप मूलागमोंमें निरूपित कथन स्पष्टतया प्रस्तुत किया जाता है।
“पंच अंग ताली सद्गुरुकी, प्रवचन संघ निधान रे।" "आतम अनुभव रतन सुहंकर, अचर अनघ पद खान रे।".... बीस स्था. पू.-३ परमात्माकी काउसग्ग मुद्रा स्वरूपके लिए
“काउसग मुद्रा धीर ध्यानमें, आसन सहज सुथिर रे
तप तेजे दीपे दया दरियो, त्रिभुवन बंधु सुगिर रे...." श्री.न.पू.-५. कविकी अंतरंग अनुभूतियाँ ऐसे उपमा या रूपकात्मक प्रतीक माध्यमों द्वारा अभिव्यक्ति पाती है कि जो- सामान्यतया विपर्यय संकेतोमें प्रस्तुत होनेके कारण तार्किक दृष्टि-बिंदुसे न युक्तियुक्त लगती है न बुद्धिग्राह्य हो सकती है। साधारण जन-समाजको जो कल्पनाकी तरंगें भासित होती हैं या लोक व्यवहारमें जिसे कुछ उटपटांग मनोसाम्राज्यकी उद्भावनायें मानी जाती हैं-उन रचनाओंका 'उलटवाँसी' नामाभिधान किया जाता है। भारतीय भक्ति-परक काव्योमें इन विपर्याय या विपरीतार्थ प्रतीकोंके आधिकारिक-प्रयोग कबीरकी साखियों या पदोंमें-मिलते हैं। जिनसे उन्होंने गंभीर एवं रहस्यमयी
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