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________________ यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, दृष्टान्त, आदिकी नैसर्गिक-प्रभूत परिमाणमें सजावट आह्लाददायी बन पड़ी है। अन्त्यानुप्रासका शृंगार तो प्रत्येक रचनाको सजाता रहा है। परंपरित उपमेयोपमानोंको भी नव्य साजसिंगारका ओप मिला है। यही कारण है कि अलंकारोंकी . प्रचुरता होने पर भी वे काव्यको बोझिल बनानेके प्रत्युत उसे लचीला बनानेमें कामयाब हुए हैं। अतः प्रत्यवेक्षाके निष्कर्ष रूपमें हम कह सकते हैं कि जन्मजात कवित्वशक्ति प्राप्त कवि सम्राट श्री आत्मानंदजी महाराजजीके काव्योमें कदम कदम पर अनायास ही एक सिद्ध कवि सदृश अलंकारोंके सफल प्रयोग झलकते हैं। प्रायः सभी रचनाओमें हमें केवल चमत्कृति ही नहीं, अपितु अर्थ गांभीर्य, आत्मानुभूतिकी सरस एवं सहज-प्रवाहितताके साथ प्रौढ भावाभिव्यक्ति, काव्य सौंदर्यकी परिमार्जित सुष्ठु सज्जादिका परिचय प्राप्त होता है। अब हम इनके प्रतीक विधानसे व्युत्पन्न सौंदर्यका अवगाहन करेंगे। प्रतीक विधानः- भगवद्भक्तिमें लयलीन भाविक भक्तके अंतरमें व्युत्पन्न अनेकानेक विशिष्ट भावात्मक रहस्योंको, अत्यल्प शब्दोमें अभिव्यक्त करनेवाले प्रतीक, अलंकारोंके समान ही काव्योत्कर्ष और सौंदर्य प्रदाता होते हैं, जो बाह्याभ्यंतर मनके सुषुप्त एवं अवरुद्ध भाव या भावनाओंको जाग्रत करते हैं और उलझनमय, गूढ, दुर्बोध रहस्योंका सुलझे हुए सरल एवं स्पष्ट अभिभावन कराते हैं। इन भक्त कवियोंकी आध्यात्मिक चिंतन-मनन-निदिध्यासनकी पार्श्वभूमिको संवेदनात्मक एवं प्रतीतिगम्य बनानेके लिए जिन आलंबनोंका सहयोग प्राप्त होता है उनकी पहचान प्रतीकाभिधानसे करायी जाती हैं। अर्थात् पदार्थ या प्राणीके रूप-गुण या व्यापार, भाव और भावनादिके सादृश्य या प्रत्यक्षीकरणके लिए जिन-जिन पदार्थ-क्रिया-नैसर्गिक भावना या सांस्कृतिक गुण-व्यापारोंका व्यवहार उनके प्रतिनिधि रूपमें किया जाता हैं- वे ही प्रतीक कहलाते हैं। 'सादृश्यके अभेदत्वका घनीभूत रूप प्रतीक है। अतः रूपकका अत्यधिक रूढ़-सर्व सामान्य स्वरूप जिसमें अप्रस्तुतसे ही काम चलता है-प्रतीकके रूपमें हमारे सामने आता है? १६ ये प्रतीक, विवक्षित या चिंतित विषयानुरूप एवं भाव आंदोलनोंसे आविर्भूत अनेक रूपोमें प्राप्त होते हैं-यथा- लौकिक-लोकोत्तर-जैविक-प्राकृतिक, शाब्दिक-ध्वन्यात्मक, करुणामय- आनंदोर्मिमय आदि-जिनके सहारे साधारण-सी दिखनेवाली उक्ति विशिष्ट वैचित्र्ययुक्त, मार्मिक या चमत्कृत बन जाती हैं। अनुभूतिकी सूक्ष्म गहराई जिसके अंतरको आंदोलित कर चूकी है, वे सफलतासे प्रभावक प्रतीकोंकी संयोजनासे अपनी रसीली रचनाको सहज ही में सजा देते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्रमें इन प्रतीकोंका सहयोग दो प्रकारकी भावाभिव्यक्तिके लिए विशेषतः किया जाता है। प्रथम-परमात्माका स्वरूप-परमात्मासे आत्माकी भेदाभेद अवस्थाके स्पंदन, परमात्मासे विरहावस्थाकी करुण-असह्य वेदनाभिव्यक्ति, परमात्मासे मिलनकी उत्कट उत्कंठा और उसके लिए सत्प्रयत्न, परमात्म स्वरूप प्राप्तिकी परम-उल्लासमय-परिपूर्ण-'सत् चित् आनंदकी अनुभूति' आदिकी अभिव्यक्ति; और द्वितीय-तात्त्विक अथवा दार्शनिक-जिसके अंतर्गत (तत्त्वत्रय) देव-गुरु-धर्मका स्वरूप, कर्मस्वरूप भवभ्रमण स्वरूप, लोकस्वरूप, संसारस्वरूप, मुक्तिस्वरूप, मुक्ति प्राप्तिके मार्ग आदिकी भावाभिव्यक्तियोंका सन्निवेश किया जाता है। इनके अतिरिक्त लौकिक या सामाजिक जीवन व्यवहारके विभिन्न भावव्यापारोंको प्रभावित करनेवाले एवं सात्त्विक-असात्त्विक वृत्तियोंको भी विशेष चारुत्वके साथ व्यवहृत करनेमें सहयोगी क्रिया-कलापोंकी श्रेणिको स्पर्शनेवाले प्रतीकोंका भी काव्यमें समाहार किया जाता है जो साहित्य सृष्टिकी प्रारम्भिक अवस्थासे अद्यावधि विभिन्न स्वरूपोंमें अक्षुण्ण रूपसे प्रयुक्त होते आ रहें हैं। लेकिन साम्प्रत साहित्य सृजनमें जो प्रतीकवादी काव्यधाराकी संज्ञा प्राप्त काव्योंका आविष्कार हुआ-वे यथार्थवादी प्रवृत्तियोंकी आदर्शवादी प्रतिक्रियाके रूपमें ही आविर्भूत हुए, जिससे जीव और जीवनकी यथातथ्य प्ररूपणाके प्रत्युत प्रतीकात्मक संदर्भ या अलंकारोंके माध्यमसे स्वप्निल आदर्शोका प्रकटीकरण होने लगा। इनके अनुसार कोई भी रचना भावात्मक, विषयपरक, प्रतीकात्मक, संश्लिष्ट, (69) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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