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प्राप्त होगा ? अर्थात् प्राप्त अवसरका समुचित उपयोग कर लें । शृंखलाबद्धः-- एकावली-जहाँ वस्तुओंके ग्रहण और त्याग की एक श्रेणि बन जाती है
“बिना सरधानके ज्ञान नहीं होत है, ज्ञान बिन त्याग नहीं होत साचो।
त्याग बिन करमका नास नहीं होत है, करम नासे बिना धरम काचो।" चतु.जिन.स्त-९ यहाँ सच्चे धर्म तक पहुँचनेके लिए कर्मनाश, त्याग, ज्ञान-प्राप्ति, और शुद्धश्रद्धानकी एक श्रेणि बनाई गई है अतः यहाँ एकावली अलंकार बनता है। वाक्य न्यायमूलः-यथासंख्य-क्रमशः कहे हुए पदार्थोंका उसी क्रमसे जहाँ अन्वय होता है।
“चार अवस्था तुम तन शोभे, बाल तरुण मुनि मोक्ष सोहंदा
मोद हर्ष तन ध्यान प्रदाता, मूढ़ मति नहीं भेद लहंदा... यहाँ श्री श्रेयांसनाथ जिनेश्वरकी स्तवना करते हुए परमात्माके जीवनकी चार अवस्थाओंका चार भावोंमें अन्वय करके कविवरने 'यथासंख्य' अलंकार रचा है। पर्याय-एक ही आधेयका अनेक आधारों में होना पर्याय रूपमें वर्णित होता है।
___ “उपादान तुं ही, सिद्ध रूप तूंही, निमित्त खरो सिद्धचक्र मुही।
जब ध्याता, ध्येय, अरु ध्यान मिले, सिद्ध और नहीं तुं और नहीं...."नव.पू.२ । यहाँ आत्मा रूपी आधेयको विभिन्न आधारोमें वर्णित किया गया है और अंतमें निष्कर्ष रूप आत्मा ही सिद्ध स्वरूपी है यह सिद्ध किया है।---"मंगल पूजा सुरतरु कंद.....
सिद्धि आठ आनंद प्रपंचे, आठ करमका काटे फंद.... आठों मद भये छिनकमें दूरे, पूरे अड़ गुण, गये सब धंद....
आठ प्रवचन सुधा रस प्रगटे, सूरि संपदा अति ही लहंद....” सत्रह भेदी पूजा-१३ यहाँ "अष्टमंगलकी पूजा को विविध भावोंमें पर्यवसित किया गया है। लोकन्यायमूलकः--प्रत्यनीक-शत्रुको जीतनेमें असमर्थ होनेके कारण उसके पक्षवालोंसे वैर निकालनेको 'प्रत्यनीक' अलंकार कहते हैं। प्रत्यनीकका अर्थ ही है प्रतिवादी।
“दुग्ध सिंधुरस अमृत चाखी, स्याद्वाद सुखदायी रे।
झहरपान अब कोन करत है, दुर्नय पंथ नसायां री।.... चाह लगी...." आ.वि.स्त.पृ-८८ प्रतीप-जहाँ विपरीतता दिखाई देती है।
___“पंचभद्रनो त्याग करीने, पंचमी गति द्यो सारजी।
निग्रंथपणाने त्यागो प्राणी, निग्रंथ आदर सारजी।।"....ह.लि.स्त.-३० गूढार्थप्रतीतिमूलः-- स्वाभावोक्ति-मनुष्यकी किसी भी अवस्था विशेषका स्वाभाविक रूपसे वर्णन मिलता हो
“आवो नेम, सुख चैन करो, दुःख काहे दिखावो रे.... विरहै तुमरो अति ही कठन, सह न सकू मन एक छिन, जगत लगा सब हाँसी करन, मत छोड़ीने जावो रे....आवो....
करुणासिंधु नाम धरन, सुन अनाथके नाथ जिन, ..
रुदन करूं तुम चरन पडन, टूक दया दिल लावो रे....आवो.... अड़भव सुंदर प्रीत करी, अब कयुं उलटी रीत धरी,
'आतम' हित जग लाज टली, निज भवन सधावो रे....आवो...." ह.लि.स्त-१४ यहाँ भगवान श्रीनेमिनाथजीकी लग्न-मंडपसे वापस जानेकी बात सुनकर विरहिणी 'राजुल की हृदयद्रावक विनतीका वर्णन स्वाभाविक ढंगसे फिर भी मार्मिक रूपमें किया गया है।
अलंकार सृष्टिका पर्यालोचन करते हुए हम देख सकते है किं कविराज श्री आत्मानंदजी म.ने काव्योद्यानमें प्रायः सर्व प्रकारके पुष्पालंकारोंकी परिमल प्रसारित की है। फिर भी, प्रमुख रूपसे अनुप्रास,
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