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________________ यहाँ 'अपूरख' अर्थात् अभिनव नूतन और 'अपूरत' अर्थात् अद्भूतः अपूर्व याने केवलज्ञान इस प्रकार अपूरवके विभिन्न अर्थग्राही श्लेष अलंकार बनता है। "हुं तो नाथ ही नाथ पुकार रही, कुमता जर जार ही जार रही" - आ. वि. स्त - ९४ यहाँ अनादि कालसे वृद्ध बनी कुमतिके जार- पुरुषको जलाना और वही कुमतिकी बिछायी हुई जालको जलाकर खत्म करनेकी बातको 'जार' शब्दसे श्लेषित की गई है। अर्थातरन्यास- जहाँ विशेषसे सामान्यका अथवा सामान्यसे विशेषका साधर्म्य या वैधर्म्यके द्वारा समर्थन होता है “मन मेला, तनका अति उजला, बगलेके सा तोल । घोडा काठका होसा न पूरे, बाजे न फूटा ढोल... "ह.लि. स्त१७ यहाँ काठका घोडा, फूटा ढोल और बगले से, मनके मैले और तनके उजले व्यक्तिके मानसिक भावोंका चित्रण किया गया है। पर्यायोक्ति- "शील सेना जिन, निज तन धारो; मदन अरि जिन पकड पछार्यो धन धन नेम यहाँ बाल ब्रहमचारी श्री नेमिनाथकी धन्यता महानताको, शीलसेनाधारी सेनापतिके शत्रुको पकड कर पछाडने रूप विशेष भावोंसे व्यक्त किया है। व्याजस्तुति- “जो दायक समरथ नहि तो, कहो कुण मांगन जाये। त्रिभुवन कल्पतरु में जाथ्यो, कहो किम निष्फल थायें यहाँ प्रथम परमात्मा की निंदा-"देनेमें समर्थ नहीं कहकर कल्पतरु हो तो फिर मेरी याचना कैसे निष्फल हो सकती है?' अर्थात् आप समर्थ ही हो। भेदप्रधानः- व्यतिरेक- “ चंद्रकिरण जस उज्ज्वल तेरो, निर्मल- ज्योत सवाइ री.... चतु. जिन स्त-८ यहाँ 'चंद्र किरणकी उज्ज्वलता' उपमानकी अपेक्षा 'यशकी निर्मल ज्योत को 'सदाइ' कह कर उपमानका अपकर्ष दिखाया गया है इसलिए व्यतिरेक अलंकार बनता है। विरोधगर्भः -- विरोधाभास "घृत बिन पूरे ज्योति अखंडित, वर्तिक मल न चिकासे रे दीप जयंकर चिद धन संगी, केवल जगत प्रकासे रे.... अष्ट. प्र. पूजा-४ यहाँ बिना छत वर्तिकके जयंकर दीपककी ज्योतिका विरोध आभासित है यह बात जब केवलज्योत जगत प्रकाशकी बात सुनते ही प्रकट होकर विरोधका परिहार कर देती है। विभावना जहाँ कार्य-कारणान्तरकी कल्पना की जाती है-यथा Jain Education International 67 कुमार....ह. लि. स्तर ६ कामदेव रूप महान "यह संसार सुही सावरजो, संबल देख तु भायो । चाखन लाग्यो रुइसी उड गई, हाथ कछुय न आयो रे मन...." आ.वि.स्त पद असंगति-जहाँ जो कार्य प्रवृत्ति होनी चाहिए उससे विरुद्ध कार्य प्रवृत्ति हो तब यह अलंकार बनता है-यथा“ प्रवचन अमृत जलधर बरसे, भवि मन अधिक उल्लास रे; कुमति कुपंथ अंग्रेजन जे ते सुकत जैसे जवास रे" बीस स्था. पू. ३ यहाँ भव्य जीवोंको उल्लास देनेवाली अमृतमयी प्रवचन धारासे कुमतिधारी कुपथी, जो अभी अज्ञानांधकारमें भटकते हैं- प्रफुल्लित होनेके बदले सूखने लगे-अतः असंगति सम-कारणके अनुकूल जहाँ कार्यका वर्णन किया जाता है, वहाँ 'सम' अलंकार होता है “ ओड़क बरस शत आयुमान मान सत्, सोबत विहात आध लेत है विभावरी, तत बाल-खेल ख्याल अरध हरत, प्रौढ़, आध, व्याध, रोग सोग सेव कांता भावरी । उदग तरंग रंग, योवन अनंग संग, सुखकी लगन लगे, भई मति बावरी, अलंकार बना । मोह कोह दोह लोह, जटक-पटक खोह, आतम अजान मान, फेर कहाँ दावरी ?” उ. बा. २१ यहाँ आत्मा शत वर्षायुष्यको कैसे पागलकी भाँति व्यर्थ व्यतीत कर देती है, इसका यथार्थ वर्णन करके श्री आत्मानंजी म. निजात्माको सचेत करते हैं कि, ऐसा मानव भव प्राप्तिका दाव-अवसर बारबार कहाँ For Private & Personal Use Only "....ह.लि. स्त २२ फिर कहा है कि, है कि, 'नहीं, तुम तो . www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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