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________________ “पड़त पतंग न धूमकी रेखा, केवल दीप उजासे रे....." अष्ट प्र.पूजा - दीपकपूजावाक्यार्थगतः- प्रतिवस्तूपमा-“तें तार्यो प्रभु मोह को रे, हरी भवसागर पीर। ___ ग्यान नयन मुजे ते दीये रे, करुणा रसमय वीर ॥" .... आ.वि.स्त.पृ. ६१ यहाँ 'तारना', 'हरना' और 'ज्ञान नयन देना'-तीनोंमें एकही क्रियाधर्म दर्शाया गया है और 'मुझे एवं 'मोहको'-दोनों शब्द भी एकार्थी है। अतः प्रतिवस्तूपमा अलंकार बनता है। दृष्टान्त- “तुं मुझ साहिब वैद्य धन्वंतरी, कर्म रोग मोह काट रत्नत्रयी पथ मुझ मन मानीयो रे, दीजो सुखनो थाट।"चतु. जिन स्त.-१७ यहाँ अरिहंत देवका रत्नत्रयी रूप पथ्य देकर मोहनीय कर्मरोगको नष्ट करनेवाले धन्वंतरी वैद्यके साथ समानधर्मा बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव प्रस्फुटित होता है। इसलिए दृष्टान्त अलंकार बनता है। वैसे ही मिथ्यात्व रूपी लोहेको जिनवाणीके रसायण रससे सम्यक्त्व रूपी सुवर्ण बनानेमें भी समानधर्मी बिम्बप्रतिबिम्ब भाव झलकता है- “नाम रसायण सहु जग भासे, मर्म न जाने कांइ री। जिनवाणी रस कनक करणको, मिथ्या लोह गमाइ....” चतु. जिनस्त..८. उदाहरण-दृष्टान्तमें वाचक शब्द आने पर उसे 'उदाहरण' अलंकार कहते हैं "बंधन गये तुंब ज्युं जलमें, छिनक में उर्ध हि आवे, आतम निर्मल सुध पद पामी, जनम मरण मिटावे रे....” आ.वि.स्त.पृ.-५८ “छिनमें बिगर गयो, क्या है मूढ़ मान गयो, पानीमें पतासा तैसा, तनका तमाशा है"- उप.बा.५८. निदर्शना-जहाँ वाक्य या पदार्थमें असंभव संबंधके लिए उपमाकी कल्पना की जाती है-जैसे, भववनको जलानेवाली साधना रूपी अग्निकी साक्षीमें मनभावन सिद्धिवधूके साथ साधकके लग्न चित्रको चित्रित किया है, जिसके आनंद प्रदर्शनके लिए मंगल 'तूर्यादि' वाद्य बज रहे है । "सिद्धिवधू' कोई नारी तो है नहीं। लेकिन मोक्षके सबल भावको पेश करनेके लिए असंबंध संबंधकी कल्पना की गई है । यथा . “उदे भयो पुन पूर नर देह भूरि नूर, बाजत आनंद तूर मंगल कहाये है । भववन सघन दगधकर अगन ज्युं सिद्धि वधु लगन सुनत मन भाये है ।" उ.बा.१३ विशेषण विच्छित्ति प्रदानः-समासोक्ति-कर्मसे दीन बने हुएको सांसारिक शक्तियाँ (वाचिक शक्ति) सुवर्ण सदृश शुद्धात्माको भी डुबा देनेका सामर्थ्य रखती हैं तो परमात्माके चित्तका संग करनेकी इच्छावालेलोहकंकण लेकर आये हुएके क्या हाल होंगें?-इस पंक्तिमें सांसारिक शक्ति रूप अप्रस्तुतकी स्फुरणा की गई है “एक इच्छक प्रभु लोह कंकण ले, भूपति अंग संगकार, वचन युक्तिसे हेम डूबोए, है एह शक्ति संसार।" ह. लि. स्त-२७ परिकर-“शिववधू वशीकरणको नीकी, तीनों रतन धरी। आतम आनंद रसकी दाता, वीर जिने दान करी.... वीर जिने दीनी माने एक जरी।" आ.वि.स्त.पृ-६९ 'परमात्माके दान' रूपी विशेष्य- 'जड़ीबुट्टी'को वशीकरण करनेवाली, नीकी, तीन रत्नधारी, आत्माको आनंदरसकी दाता आदि विशेषणों द्वारा प्रकट किया है। अतः यहाँ परिकर अलंकार बनता है। इसके अतिरिक्त 'आतम' शब्द पर श्लेष है। १) आत्माके आनंदकी दाता और (२) श्री आत्मानंदजी म.को आनंदरस प्रदान करनेवाली-'धरी', 'जरी', 'करी' आदिमें अंत्यानुप्रास भी वर्णित है। श्लेष- शुचितनु वदन वसन धरी, भरे सुगंध विशाल। कनक कलश गंधोदके, आणि भाव विशाल ॥" सत्रह भेदी पूजा-१ यहाँ 'आणि'-गुजराती भाषानुसार 'लाकर' और संस्कृत भाषानुसार 'कोटि' अर्थसे श्लेषका चमत्कार अनुभूत होता है जबकि "विशालमें' में यमक और पदानुवृत्ति अलंकार बनते हैं। “ज्ञान अपूरब जबहि प्रगटे, शुद्ध करे चित्त धरणीने" बीस स्थानक पूजा-१८ (66) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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