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________________ तृषत मनुज अमृत रस घाखी, रुचसे तप्त बुझाई।। तारोजी"....च. जिन. स्त. २१ “वचन सुधारस तुम जग प्रगटे, गटके भविजन लाल हो...." ह. लि. स्त. ३१ उल्लेख-यहाँ पाठक-उपाध्यायके 'निमित्त भेदाश्रयी' विभिन्न गुणोंका वर्णन किया गया है। “पाठक पद सुख चेन देन, वच अमीरस भीनो रे..... स्वपर रूप विकासी चंद, अनुभव सुरतरु केरो कंद..... कुमति पंथ तम नाशक सूर, सुमति कंद बर्द्धन घनपूर..... सरस वचन जिम तंत्री वीन, निज गुण सब चीनो रे."बी.स्था.पू.५ अध्यवसाय मूल-उत्प्रेक्षा-“अश्वसेन वामाजीको नंदन, चंदन रस सम सारे रे। अनियाली तोरी अंबुज अखियां, करुणारस भरे तारे रे.... आ.वि.स्त.पृ. ५९ फलोत्प्रेक्षा- तपत मिटी तुम वचनामृतसे, नासे जन्म मरण दुःख फंद, अक्ष परे तुम दरस करीने, पर्तक्ष मानुं हुं जिनचंद.....आ.वि.स्त.पृ. ७० यहाँ जिनचंदके प्रत्यक्ष दर्शनके अफलमें 'अक्ष परे दरस करके' प्रत्यक्ष दर्शनकी संभावना की है। प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा-वाचक शब्दके अभावसे यह उत्प्रेक्षा अलंकार बनता है-यथासावन घटा घनघोर गरजी, नेमवाणी रस भरी। अपछंद निंदक संघके, तिन जान सिर विजरी परी।। सत्ता सुभूमि भव्यजनकी, अंश अंशे सब ठरी। अब आस पुन्य अंकुरकी, मनमोद सहियां फिर खरी॥ च.जिन स्त.२२ यहाँ श्रीनेमजिनकी वाणीमें 'सावनकी घटाकी घनघोर गर्जना' आदिकी संभावनामें संशयवाचक शब्द लुप्त है। अतिशयोक्ति-ऐसा कभी हो नहीं सकता कि क्रोड़ सागरोपम वर्ष (असंख्यात वर्ष) पर्यंत गुण गाने पर भी वह अधूरे रहें लेकिन कविराजने परमात्माके अलौकिक-अनंत गुणगानके माहात्म्यको प्रदर्शित करनेके लिए लोक व्यवहार विरुद्ध भासे ऐसी स्तवना की है “कोडि बदन कोडि जीभसे रे, कोडि सागर पर्यंत गुण गाउँ तेरे भक्तिशुं रे, तो तुम रिण को न अंत......" आ.वि.स्त.पृ.६१ सम्बन्धातिशयोक्ति--“जनम जनममें माता रोई, आंसूनासंख कराना रे । होय अधिक ते सब सागरथी, अज हुं चेत अज्ञाना रे.....” ह.लि.स्त. -२५ असम्बन्धातिशयोक्ति-"धारो 'चरण' नहीं मिले मोल, रंक-राज्य पद दायी ...." नव.पूजा.-८. यहाँ 'चरण' शब्दमें 'श्लेष' अलंकार भी बनता है 'चरण' याने पाँव और 'चरण' याने सम्यक चारित्र। दोनों ही मूल्य चूकाने पर भी नहीं मिलते हैं। वैसे तो मोल देनेसे सबकुछ प्राप्त करनेका जो सम्बन्ध उसे 'न मिलना' वर्णित करके असम्बन्धकी कल्पना की गई है। क्रिया साम्य मूल (गम्योपम्याश्रय):-पदार्थगतः दीपक-'तुल्ययोगिता')-विभिन्न आत्माओंकी इस संसार परिभ्रमण क्रिया रूप धर्मको प्रस्तुत करके कविने यह अलंकार नियोजित किया है। “ऊँच नीच रंक कंक कीटने पतंग ढंक, ढोर मोर नानाविध रूपको धरतु है । श्रंगधार गजाकार, वाज वाजी नराकार, पृथ्वी तेज वात वार (वारि) रचना रचतु है"उ.बा.१८. माला दीपक-“अठारे सहस्त्र शिलांग धार, जयणायुत अचल आचार पार; नव विध गुप्तिसे ब्रह्मकार, आतम उजार भववन दव दीना।। जे द्वादशविध तप करत चंग, दिन दिन शुद्ध संयम चढ़त रंग . . सोनाकी परे धरे परिख चंग, चित्तौ अभंग संजम रस लीना।।” नव.पूजा.५ यहाँ 'अभंग संयम रस प्राप्ति के लिए साधु जीवनकी विविध चर्या क्रियामें एक धर्म क्रियारूप धर्मकी समानता प्रदर्शित की गई है। देहली दीपक -एक ही क्रिया दोनों वाक्योंके बीच आती है तब यह अलंकार बनता है-केवलज्ञान रूपी दीपकके प्रकाशमें दो क्रियाओंका निषेध किया गया है (65) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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