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________________ चहके उवार दीन, राजमति पार कीन, ऐसे संत ईश प्रभु बाल ब्रह्मचारी है।" उ. बा.-३४ अर्थालंकारः-सादृशमूल-भेदाभेद प्रधान--उपमापूर्णोपमा- “मन बच तन कर पदकज सेवो भंग परे लपटानी"....ह. लि. स्त-६५ “वदन चंद ज्यूं शीतल सोहे, अमृतरस मय बानी"..... ह. लि. स्त-६६ “अश्वसेन वामाके नंदन, चंदन सम प्रभु तप्त बुझारी”..... चतु. जिन स्त-२३ "राजकुमर सरिसा गणचिंतक, आचारज पद जोगी"...... श्री नवपद पूजा-चौथी लुप्तोपमा- “त्रिशलानंदन सुरतरु जगमें, वांछित फल पावेजी".....-ह. लि. स्त-४५ यहाँ त्रिशलानंदन (भ.महावीरजीको) कल्पवृक्षकी उपमा दी है, लेकिन वाचक शब्दका लोप है, इसलिए वाचक लुप्तोपमाका प्रयोग हुआ है। मालोपमा-भगवंतको उपमेय बनाकर विभिन्न उपमानोंकी माला-सी गूंथी गई है“प्रभु अविचल ज्योति रे, निज गुण रंग रली। प्रभु त्रिभुवनचंदा रे, तामस दूर टली। जग शांतिके दाता रे, अघ सब दूर दली। प्रभु दीन दयाला रे, मुझ मन आश फली।" ह.लि.स्त ७१ इसीका एक और सुंदर प्रयोग है- “दीन दयाल करुणानिधि स्वामी, वर्धमान महावीर भलेरो। श्रमण, सुहंकर, दुःखहर नामी, ज्ञातपुत्र भ्रमभूत दलेरो.....” आ.वि.स्त.७८ उपमेयोपमा-परमात्माकी वाणीके जो गुण-भेद है उन्हें सुंदर ढंगसे उपमेय-उपमान-परस्पर उपमेयोपमान बनाकर जाल जैसे गूंथा है- “उत्सर्ग अपवाद अपवाद उत्सर्ग उत्सर्ग अपवाद मन धार लीजो, ___अति उत्सर्ग उत्सर्ग है जैनमें, अति अपवाद अपवाद कीजो।" - च.जि.स्त-९. अनन्वय-सर्व जीव समान होते हैं-यह है साम्यवाद; लेकिन वैषम्य कहाँ है? कर्मके कारण। "कर्म हठेसर्वकर्मरहित-सर्व जीव एक समान ही होते हैं । इसे श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथके स्तवनमें अनन्वय अलंकारके प्रयोग द्वारा-जहाँ उपमेय उपमान एक ही हों-दर्शाया गया है “जब करम कटा और भरम फटा, तुं और नही मैं और नहीं"। . आ.वि.स्त.-पृ.७४ “जब राग कटे और द्वेष मिटे, तुं और नहीं मैं और नहीं"। - आ.वि.स्त.-पृ.७४ प्रतीप- “पंचभद्रनो त्याग करीने, पंचमी गति द्यो सारजी, निग्रंथपणाने त्यागो प्राणी, निग्रंथ आदर सारजी".....ह.लि.स्त.३० अभेदप्रधान-आरोपमूल-रूपक-“अब हुं निरासो कदी ही न थाबु, कल्पवृक्ष प्रभु पायो रे...." ह.लि.स्त.१० अभेद रूपक-यहाँ परमात्मा रूपी आरीसे भवभ्रमण रूपी बनको काटने-खत्म करनेके स्वरूपमें प्रस्तुत किया है। “अश्वसेन वामाजीको नंदन, भववन काटनको प्रभु आरी"..... ह.लि.स्त. २८. “अब तुम नाम प्रभंजन प्रगटयो, मोह अभ्र छय कीनो"..... आ.वि.स्त.-५. “परगुन बकरीके संग चरके, हुंडु नाम धरायो जिनवर सिंघको नाद सुण्यो जब, आतम सिंघ सुहायो..." आ.वि.स्त.-पृ.१०० सांग रूपक-जहाँ उपमेयके अवयवों सहित उपमानके अवयवोंकी एकरूपता दिखाई जाती है। “चंद्रवदन मुख तिमिर हरे जग, करुणा रस दृग भरे मकरंद नीलांबुज देखी मन मधुकर, गूंजे तूंही तूंही नाद करंद... कनक बरण तनु भवि मन मोहे, सोहे जीते सुरगण वृंद मुखथी अमृत रसकस पीके, शिखीवत् भविजन नाच करंद.... श्री वीरजिन दर्शन नयनानंद.....आ.वि.स्त. पृ.६९ परंपरित रूपक- “करम कुधातुसे चेतन विगर्यो, माने सबहि एकंगी रे। सम्यग् दरसन चरण तापसे, दाहे करम सरंगी रे...."(बा.भा.स.५.) तद्रुप - रूपक- “तुम गुण कमल भ्रमर मन मेरो, उड़त नहीं है उड़ाई। (64) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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