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________________ करमदल खंडना, मदन विहंडना, धरम धुर मंडना, जगत त्राता । अवर सहु वासना, छोर मन आसना, तेरी उपासना, रंग राता; करो मुझ पालना, मान मद गालना, जगत उजालना, देह शाता ।। ”....चतु. जि. स्त. ९ वैसे तो अंत्यानुप्रासका प्रसाद इनके काव्यमें प्रायः सर्वत्र पाया जाता है। यमक - श्रीनेमिनाथ भगवंतके चचेरे भाई- कृष्णजी जब भगवंतके कहनेसे जानते हैं कि उन्हें नरकमें जाना पड़ेगा तब विहवल होकर नरकसे मुक्तिका उपाय पूछते हैं। उसके प्रत्युत्तर में सर्वज्ञ परमात्मा उन्हें सान्त्वना देते हुए कहते हैं कि आप भी नरकगमन पश्चात् भावी तीर्थंकर 'अमम' नामसे बनोगे। इसीको कविवरने, ममत्वरहित- 'अमम जिनका आलेखन किया है “अमम अमम” जिन रूप सरिसो, जिनवर पद उपजाई ”. ..ह. लि. स्त-११ “भामंडल पूंठे प्रभु दर्सण, तम मिथ्यातम नावे रे”....ह. लि. स्त - २९ " आतम आनंद चिदघन स्वामी, शांति, शांति कर तार हो"....ह. लि. स्त- ३३ “परमानंद कंद प्रभु पारस, पारस तो सही । तुम निज आतमको कनक करण, टुक फरसो तो सही"....आ. बि. स्त. - पृ १०५ "शीतल जिनवर नाम शीतल सेवक कीजिए शीतल आतम रूप, शीतल भाव धरीजिए । "..... च. वि. स्त. - १० इस प्रकार जगह जगह पर सभंग एवं अभंग यमकके चमकार प्राप्त होते हैं। वीप्सा- आदरणीय शुभ-शुद्धादि भावोंके प्रभावकी वृद्धि हेतु किसी शब्दकी पुनरावृत्ति करने पर यह अलंकार बनता है। परोपकारी गुरुदेव जलमें कमलकी तरह तैरनेके लिए और पाप-पंकको झाड़ कर समाधि प्राप्त करके निर्मद एवं निर्ममत्व धारण करनेके लिए शीख देते हैं। यहाँ तैरना, झाड़ना, वरना आदिकी प्रभावोत्पादकता इनकी अनेकवार आवृत्ति करके की गई है “ काम भोग जल दूर तजीने, उर्ध्व कमल जिम तर रे तर रे तर रे तर रे, मुनिजन अर्चन शुद्ध मन कर रे, कर रे कर रे कर रे कर रे..... अंग अष्ट चित्त जोग समाधि, पाप पंक सब झर रे झर रे झर रे झर रे..... शुद्ध स्वरूप रमणता रंगी, निर्मम निर्मद वर रे वर रे वर रे वर रे...." न. पू. ५ पुनरुक्त प्रकाश- भावको रुचिकर बनानेके लिए यहाँ कविराजने 'सुमति' शब्दकी दो बार आवृत्ति की है। इसे पुनरुक्ति भी कहते हैं- “ सुमति सुमति समता रस सागर, आगर ज्ञान भरिनो । आतम रूप सुमति संग प्रगटे, सम दम दान वरिनो....आ. बि. स्त. पृ-८३ यहाँ 'सुमति संग 'से आत्मख्य प्रगटनेमें सहोक्ति अलंकार भी दृष्टव्य है। पुनरुक्तवदाभास- जिनशासनके अनेकांतको उजागर करते हुए अहिंसाकी प्रधानता गाते हैं। 'काम वासना' रूप भावकी हिंसा करके कैसे करुणा भावको प्राप्त करना है इसे ध्वनित किया है Jain Education International “ करुणा रससे धरी शुभ फानस, मरत न जेम पतंग। तिम जिन पूजत मिले चित्त दीपक, जरत है समर पतंग रे”....अ. प्र. पूजा - दीपक पूजा चित्रमूलक - अपरिग्रही निर्मम अकाम केवलज्ञान दिवाकर-विश्व रूपी टहनी पर पुष्प सदृश संसारमें ज्ञान परिमल प्रसारक नवनव भवकी प्रीतिपात्र - राजमतिका दीनतासे उद्धार करके संसार पार कराकर प्रसन्न करनेवाले-बाल ब्रह्मचारी परमात्मा श्रीनेमिनाथजीके रूप गुणका जो शब्द-चित्र अंकित हुआ है वह अपने आपमें स्पष्ट व संपूर्ण प्रभावशाली बन पड़ा है। “टहके सुमन जेम, महके सुवास तेम, जहके रतन हेम, ममताकुं मारी है, दहके मदनवन, करके नगन तन, गहके केवल धन, आस वास डारी हैं। कहके सुज्ञान भान, लहके अमर थान, गहके अखर तान, आतम उदारी है। 63 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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