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________________ और विशेषण वैचित्र्यमूलक। अब ‘एकावली' में विद्याधरजी द्वारा किया गया वर्गीकरण अत्र प्रस्तुत है अलंकार (१५ शब्दालंकार अर्थालंका अर्थालंकार स्वराघातमूलक आवृत्तिमूलक चित्रमूलक वर्णावृत्ति शब्दानुवृत्ति पांचअनुप्रास (यमक, वीप्सा, पुनरुक्तप्रकाश, छेक, वृत्ति, श्रुति, अंत्य, लाट पुनरुक्तवदाभास) । पत्ति वक्रोक्ति श्लेष काकू सादृश्यगर्भ विरोधगर्भ शृंखलाबद्ध तर्कन्याय मूलक वाक्यन्याय लोकन्याय मूलक गूढार्थ प्रतीतिमूलक मूलक भेदाभेद प्रधान अभेद प्रधान गम्योपम्याश्रय आरोप मूलक अध्यवसायमूलक पदार्थगत वाक्यार्थगत विशेषण विशेष्य विच्छित्ति विच्छित्ति प्रधान प्रधान भेद 'प्रधान अब हम देखेंगे कि कविसम्राट श्री आत्मानंदजी म.सा.द्वारा अपनी काव्य रचनाओमें अलंकारोंका कितना और कैसा प्रयोग किया गया है। प्रथम शब्दालंकार तदनन्तर अर्थालंकारोंका विवरण किया जायेगा। शब्दानप्रास-आवृत्तिमूलक-जहाँ वर्णोंकी या शब्दोंकी आवृत्ति होती हैं। वर्णानप्रास-यहाँ स्वर या व्यंजनोंकी आवृत्ति-समानता दर्शायी जाती है। 'चिदानंद घन' परमात्माके मनमोहक स्वरूपका वर्णन करते हुए स्तवना की है “चिदानंद घन अचर, अमूरत, सुरत त्रिभुवन मानी"-हस्त लिखित-स्तवन-६७ छेकानुप्रास-आत्माको अनुकूल सिद्धि पाकर कुछ कमाई करनेके लिए प्रेरित करते हैं "सकल सिद्धि अनुकूल हुए जब, सम दम संयम पाई अकषाय अति उज्ज्वल निर्मल, मदन कदन चित्त लाई, बंदे कछु करले कमाई रे, जाते नरभव सफल कराई......"न. पूजा-४ यहाँ स, ल, म, अ, द, न, क आदिकी आवृत्ति हुई है। अंत्यानुप्रास-ई कीभी आवृत्ति है। वृत्त्यानुप्रास-भगवंतके उपकार सर्वविदित ही है, इन्हींको ऐसी लयके साथ पेश किया है “मदन कदन शिवसदनके दाता, हरन करन दुःखदायी रे.... कर्म भर्म जग तिमिर हरनको, अजर अमर पददायी सखि री....."ह. लि. स्त. ११ इसमें 'न' की आवृत्ति हुई है साथ ही साथ 'हरन से यहाँ 'यमक' अलंकार भी बनता है। नुप्रास-देशनाकी अमृतवर्षा करनेवाले अरिहंत परमात्माकी विशिष्ट विशेषणों द्वारा स्तुति की गई है“शासनपति अरिहा नमो, धर्म धुरंधर धीर, देशना अमृत वर्षणी, निज वीरज वडवीर....."नवपद पूजा-१ और अब श्री सिद्ध भगवंतके गुण स्वरूप-सिद्धके विशेषणों द्वारा, कंठ्य 'अ' स्वरकी आवृत्ति करते हुए वर्णित हुआ है- “अलख निरंजन अचर विभु, अक्षय अमर अमार महानंद पदवी वरी, अव्यय, अजर, उदार....."न. पू.-२ - अंत्यानुप्रासः- “सुविधिजिन वंदना, पाप निकंदना, जगत आनंदना, मुक्ति दाता; (62) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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