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कला ही अलंकारका प्रायोगिक रूप माना जा सकता है। जबकि व्युत्पत्ति रूपमें उसे व्याख्यायित करें तो-(१) 'अलं करोति इति अलंकारः'-आचार्य भामहके विचारोंसे अलंकार ही काव्यमें सुंदरता और रोचकता, रसात्मकता और जीवंतता ला सकता है। अर्थात् काव्यमें अलंकार अनिवार्यतः आवश्यक हैं। इन विचारोंके अनुगामी हम पाते हैं-दंडी, वेदव्यास, जयदेव, नरेन्द्रप्रभ सूरिजी, केशव, गुलाबसिंह, मुरारिदान, अप्पय दीक्षित, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. नगेन्द्र आदिको। (२) "अलंक्रियते अनेनेति अलंकारः” -आचार्य मम्मटके खयालमें जिसके द्वारा विभूषित किया जाय वह अलंकार है: अर्थात् अलंकार, काव्य-सौंदर्य-वृद्धिके केवल साधन हैसाध्य नहीं अथवा अलंकार रसके पोषक, उत्कर्षक, उपकारक है। इन खयालातोंके अनुवर्ती हैं-जैनाचार्य श्री हेमचंद्र सूरिजी, विद्याधर, विश्वनाथ, चिन्तामणी, भिखारीदास, देव आदि। (३) 'अलंकरणम् इति अलंकारः'. आचार्य आनन्दवर्धनके अभिमतसे रस या व्यंग्यसे विपरित केवल काव्यको अलंकृत करते हुए चमत्कृति उत्पन्न करनेवाला अलंकार काव्यका गौण तत्त्व है। यही कारण है कि उन्होंने काव्यमें अलंकारको नितान्त आवश्यक नहीं माना है । इस धाराकी अनुमोदना की है-पंडितराज जगन्नाथ-गोविंददास-ग्वाल-लछीराम-अर्जुनदास केडिया-डॉ.रामकुमार वर्मादिने।
___ अब प्रश्न उपस्थित यह होता है कि अलंकार कब-कहाँ-क्यों प्रयोजित किये जाते हैं? इसके प्रत्युत्तरमें हम यह कह सकते हैं-अलंकार किसी तथ्य-वस्तु या चरित्रके स्वरूपके लिए; प्रभावके स्पष्टीकरण या प्रकटीकरणके लिए: व्यंग्य द्वारा प्रच्छन्न रूपमें निंदा या प्रशंसाको प्रकाशित करते समयः शाब्दिक ध्वनि या अर्थ चमत्कृतिके उद्भावनके प्रयोगमें उपकारी बन सकते हैं, इस प्रकार अलंकारसे कवितारमणीकी बाह्य साजसज्जा आकर्षक रूप प्राप्त करती हैं। “भाषाको गति, यति, चित्रात्मकता, सहजता, प्रभावोत्पादकता अलंकारोंसे मिलती हैं। यद्यपि यह बाहरी साधन हैं तथापि उनके पीछे अलंकृतिकारकी आत्माका उत्साह और ओज विद्यमान रहता है। बाह्य साधन होनेके कारण सर्व प्रथम इन पर दृष्टि जाती है" ५४ अलंकारोका पृथक्करण-व्यवहारके विभिन्न दृष्टिबिंदुओंको केंद्रस्थ रखते हुए जीवन सत्यके विविध रूपोंको रूपायित करनेमें सहयोगी-अलंकारोंके, विद्वानों द्वारा अलग अलग भेदोपभेद प्रस्तुत करनेकी चेष्टायें हुइ हैं। ऐसे प्रयत्नोंका श्रीगणेश आचार्य भामहसे हुआ। लेकिन उनका वर्गीकरण वैज्ञानिक दृष्टिसे तर्कसंगत नहीं माना जा सकता। तत्पश्चात् आचार्य रुय्यक द्वारा कुछ वैज्ञानिक ढंगसे अलंकारोंको-सादृश्यगर्भ, विरोधमूलक, शृंखलाबद्ध, न्यायमूलक तथा गूढ प्रतीतिमूलक-इन पाँच वर्गोमें वर्गीकृत किया गया।
दया, करुणा, कौतुक, विस्मय, जिज्ञासा, उत्कंठा, उद्वेग, विषाद, हर्षादि मनोवेगोंको साधर्म्य-वैषम्य या औचित्य-चमत्कार-वक्रतादि रूपोमें विभिन्न अलंकारोंके माध्यमसे पेश किया जाता है। अतः इनके आधार पर अलंकारोंका मनोवैज्ञानिक स्तरीय पृथक्करण किया जा सकता है जो इस प्रकार निरूपित हो सकता है-साम्यमूलक, वैषम्यमूलक औचित्य मूलक, वक्रता मूलक, चमत्कार मूलक, अतिशय मूलक आदि।
इन्हें अधिकाधिक सुकरताके लिए मोटे तौर पर हम तीन विभागोमें विभाजित कर सकते हैं शब्दालंकार, अर्थालंकार, उभयालंकार-किसी विशेष शब्द प्रयोग द्वारा काव्यमें चमत्कृति उत्पन्न करें और उस विशेष शब्दके रहने पर ही वह चमत्कार रहें उसे 'शब्दालंकार'; अलंकार सिद्ध करनेवाले शब्दके परिवर्तनके पश्चात भी वह चमत्कृति या काव्यानंद बना रहे वह 'अर्थालंकार' और जो समान बलसे शब्द और अर्थ-दोनों पर निर्भर रहता है वह 'उभयालंकार' कहा जाता है।
इन विभिन्न विभागीकरणके अभ्यासोपरान्त हम देख सकते हैं कि शब्दालंकारोंके वर्गीकरणमें तो समानता पायी जाती है, लेकिन अधिक मतभेद अर्थालंकारोंमें ही प्राप्त होते हैं। इनमें भी साधर्म्य या वैधर्म्यमूलक अलंकारोंमें प्रायः एकमतता पायी जाती है और अन्यत्र भिन्नता। फिर भी, सभीमें अल्पाधिक मात्रामें मनोवैज्ञानिकता पायी जाती है। इन सभीमें विद्यानाथजी और विद्याधरजीका वर्गीकरण अधिक युक्तियुक्त माना जा सकता है। इन्होंने अर्थालंकारोंको नव भागोमें विभक्त किया है-साधर्म्य मूलक, विरोधमूलक, अध्यवसाय मूलक, वाक्यन्यायमूलक, लोकव्यवहार मूलक, तर्कन्याय मूलक, शृंखला-वैचित्र्यमूलक, अपह्नव मूलक
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