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________________ और उपदेश रहस्योंकी त्रिवेणीका एवं कलात्मक-भावात्मक-दार्शनिकताके पुट निदर्शन करवाते हुए भावपक्षका विस्तृत ब्यौरा दिया गया। अब इनके पद्योमें कलापक्षके उभार-दर्शनका प्रयत्न है, जिसके अंतर्गत इनके काव्योंमें अलंकार, प्रतीक योजना और बिम्ब विधानोंके सहारे ध्वन्यात्मकता, छंद, रस-निष्पत्ति एवं गेयता युक्त विविध राग-रागिनियोंसे नवाजित अमर काव्यदेहका वर्णन किया जा रहा है। इससे उनके कवि कौशलका परिचय प्राप्त होगा। काव्यमें अभिव्यंजना शिल्प:- काव्य, जीवनको प्रेरणा-प्रगति-प्रकाश प्रदाता है, जो सांस्कृतिक जीवन शैलीका पोषक है। ऐसे उपकारक काव्यके कृतिकार द्वारा अनुभूत आंतरिक गहन भावोंका विश्व व्याप्त मनोवेगों और भावानुभूतियोंके माध्यमसे, विविध संवेद्य रूपोमें कलात्मक प्रणयन-वही है अभिव्यंजना शिल्प जिसके अंतर्गत अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, छंद, लय, ताल, नाद सौंदर्यता, गेयतादि अभिव्यक्तिके अनेक विभिन्न अंगोंका विधान किया जाता है, और जिससे कृतिका प्रभाव, प्रांजलता एवं प्रभुताकी वृद्धि होती है, साथ ही साथ काव्यकी क्षमता-क्षेम और सौंदर्यकी, अभीष्टार्थ पूर्तिके साथ सिद्धि होती है। अभीष्टार्थकी सम्प्रेषणीय क्षमता वृद्धिके लिए एवं स्वानुभूत भावानुरूप साधर्म्य या वैधय॑के प्रतिपादनार्थ कवि नैसर्गिकमानवीय-मानवेतरादि सृष्टिकी वस्तु-व्यापार-विचार(भाव)-तथ्यादिका अवलम्बन लेकर काव्य रचना करता है। इस विभिन्न रंगयुक्त इन्द्रधनुषी आभासे भास्वरित काव्यमें प्रमुखतः दो तत्त्व पाये जाते हैं-(१) कविके हृदयकी मूल भावानुभूति अथवा काव्यमें प्रतिपाद्य भाव, जिसका वाच्य रूपमें या सूक्ष्म-स्थूल व्यंग्य रूपमें सार्थ शब्द प्रयोग हुआ है-उसे प्रस्तुत कहा जा सकता है और (२) जिसके बल पर काव्यकी सौंदर्यश्रीका संवर्धन होता है, जिसके सहयोगसे ही काव्यगत भाव, प्रकृष्ट रूपसे संवेदनशील आस्वादकको अखंटहार्दिक काव्यानंदका आह्लाद प्रदान कर सकता है-उसे अप्रस्तुत कहा जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्लजी इसी बातकी पुष्टि करते हुए लिखते हैं-“काव्यमें कोई प्रस्तुत अवयव होना आवश्यक है तब उसके अतिरिक्त और जो कुछ रूपविधान होगा वह अप्रस्तुत होगा।” १३ लेकिन हम देखते हैं कि इन ‘प्रस्तुत' और 'अप्रस्तुत'को ही वर्तमान साहित्यिक परिभाषामें 'उपमेय' और 'उपमान'के रूपमें स्वीकृत कर लिया गया है। जो काव्यके भावोंकी तीव्र रसार्द्रता, प्रभविष्णुता, संप्रेषणीयता मार्मिक सुंदरताको विवर्धनशील बनाते हैं। काव्यके प्रस्तुत और अप्रस्तुत-दोनों परस्पराश्रित होनेके कारण ही काव्यमें दृश्यमान मूर्तरूप-गुण (धर्म), विभिन्न भाव-प्रभावादिका साधर्म्य-वैधा या औचित्य-चमत्कारादिका उत्कर्ष प्राप्य है। अतः कवि ऐसे ही उपमान चयनके साथ अपना बुद्धि सामर्थ्य और कल्पना वैभव जोड़कर नित्य नूतन प्रयोगोंको उपयुक्ततापूर्वक प्रवाहित करते रहते हैं। अलंकार-काव्यमें अलंकारका स्थान महत्त्वपूर्ण है यह निर्विवाद है, और उस महत्त्वके परिमाणमें भी उतने ही विवाद है, यह भी निर्विवाद है। अलंकार काव्यको चरमोत्कर्ष रूप प्रदान करनेमें कितने परिमाणमें कारगर होते हैं, इसका निर्णय विभिन्न विद्वानों द्वारा भिन्न-भिन्न अभिप्रायके रूपमें प्राप्त होता है, फिर भी महत्त्व स्वीकार सभीने किया है। आश्चर्य इस बातका है कि, अलंकारका अक्षुण्ण महत्त्व स्वीकार करनेवाले अलंकारवादी भी न इसका ठोस-सैद्धान्तिक विवेचन कर पाये, न उसके मूल स्वरूपको स्पष्ट करनेके लिए कोई गंभीर प्रयास ही किये। अतः निश्चित हुआ कि अलंकारका कार्य काव्यकी सजावट, शोभा वृद्धि या पूर्ति करना है। ____ 'अलंकार' निहित शब्दयुग्ममें उसका अभिप्रेतार्थ समाविष्ट है-यथा-'अलं' अर्थात् आभूषण और 'कार' अर्थात् कर्ता-याने 'जो विभूषित करता है वह अलंकार है'। यह तो हुई नियुक्तिक पहचान। लेकिन, वास्तवमें अलंकार है क्या ?-अलंकार है सुष्ठु अभिव्यंजनाकी अथवा काव्योत्कर्षकी विभिन्न प्रणालिका; वागेश्वरीके आभरणः चमत्कारपूर्ण उक्ति वैचित्र्य'; सुषमाभिव्यक्तिकी ललित भंगिमाः मनोवैज्ञानिक भावसौंदर्यके प्रसारक-संक्षेपमें वर्णनकी एक शैली मात्र है। सामान्यतः संपूर्ण रूपमें सौंदर्यका पर्यायवाची होना या काव्यकी शोभाकी अभिवृद्धि करना अथवा काव्य-भाषामें तथ्य-पदार्थ-सत्य और जीवनादिको रूपायित वा बिम्बित करनेकी (60) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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