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तू शांतिके दाता, शांति जिणंद उद्धार हो....” हस्त लिखित-स्त.-३३ “धर्मनाथ जिन धर्मके धोरी, कर्म कलंक मिटानी....." ह.लि-स्त.-७२ "श्रेणिक नरपति पदकज सेवी, जिनवर पद उपजानी...." हस्त लिखित स्त.-७३ “सनत कुमार तन, नाकनाथ गुण भन, देव आय दरशन, कर मन आसा रे...."(उ.बा.५८) "नरवर हरिहर चक्रपति हलधर काम हनुमान बर भान तेज लसे है । जगत उद्धारकार संघनाथ गणधार फुरन पुमान सार तेउ काल प्रसे है ।
हरिचंद मुंजराम, पांडु सुत शीतधाम, नल ठाम छर बाम नाना दुःख फसे है । देढ़ दिन तेरी बाजी करतो निदान राजी आतम सुधार शिर काल खरो हसे है ।" -उ.बा. ४३ इनके अतिरिक्त विप्रवधू सोमेश्वरी, जयसुर, शुभमति, वणिक पुत्री लीलावती, नृप विनयधर,जिनमति,धनश्री, हालिजन-राजा आदि अनेक ऐतिहासिक प्रतीकोंका विधान है। बीस स्थानक पूजा' काव्यकृतिमें तो प्रत्येक पूजामें ऐसे ऐतिहासिक प्रतीकोंका निरूपण दृष्टिगोचर होता है । संख्यापरक-प्राचीनकालमें एक समय ऐसा था कि संख्या-अंकोका महत्व सविशेष रूपसे वृद्धिगत बन गया था। नोबत यहाँ तक आयी कि केवल अंकोमें विशिष्टग्रन्थ रचनायें होने लगी । अंकपरक इन रचनाओंमें संक्षिप्तता- सूत्रात्मकता, गूढता-गुप्तता, बौद्धिकता-रहस्यमयता आदिका निर्वाह भलीभाँति किया जा सकता है। अर्थात् अंकसे प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की जाती है । कविराज श्री आत्मानंदजीम.ने भी कुछ अंकोंको ऐसे ही निबद्ध करके अपनी रचनाओमें कुछ स्थानों पर इस प्रणालिकाको अपनाकर स्वयंको गौरवान्वित किया है-यथा__ “षट् पीर सात डार आठ छार पांच जार चार मार तीन फार लार तेरी फरे है ।
तीन दह तीन गह पाँच कह पाँच लह पाँच गह पाँच बह पाँच दूर करे है । नव पार नवधार तेरकुं विडार डार, दशकुं निहार, पार आठ, सात लरे हैं ।
'आतम' सुज्ञान जान करतो अमरथान, हरके तिमिर मान ज्ञान भान परे हैं ।" उ.बा.५५ इन प्रतीकोंके अतिरिक्त और भी प्रतीकोंका आयोजन इनकी रचनाओंमें प्राप्त होता है-यथा- 'सजन सनेहि संग विजके-सा जमको', 'पर्यो हूं काल अनादि भवोदधि कूपमें', 'तरुण अरुण सित नयण', 'मन तरंग वेग मोरी नैया', 'वयण अमृत रस नीके', 'पाप-पुण्य दोऊ तस्कर', 'मोह नदीकी गहरी धारा', धर्म कल्पतरु कंद सींचतां अमृत घन झरता', 'कामभोग जल दूर तजीने, ऊर्ध्वकमल जिम तररे' 'बावनाचंदन, रससम वचने, निज आतम सुख भोगी' 'मोह सुभट संग जंग दे 'पवन झकोरे पत्र गगन ज्यूं उडत फिरे जड़कामी' 'सूत्रानुसारी दिए देशना, भवि चकोर शशि करत आनंद', 'कषाय बडवानल', 'पापपंक', 'पाप कलंक', 'कर्मकलंक पहारा', 'सिरसेहरो', 'हियडेकेहार' 'पापलूंहण अंगर्हणा', 'आतम अनुभव मेघ वरसीया', 'भवोदधि तारण पोत मिला तूं.' 'भवनाटक', 'जयो जिनवचन सूर तमनाशक, भासक अमल निधान रे' 'पाप तापके हरणको चंदन सम श्रुतज्ञान', 'मगर', 'भुजंग', 'जडीबुट्टी', 'ऊखर में मेह तैसो सजन सनेह जेह', 'चातकघन जिम दर्शन चाऊँ मन भावन अभंग' आदि अनेकानेक प्रतीकोके प्रबंध कविराज संपूर्ण सफल रहे हैं । इस प्रकार हमें प्रतीत होता है कि इन पद्योमें रूढ़ प्रतीकोंका तो सफल प्रयोग हुआ ही है, साथहीसाथ कुछ नूतन प्रतीकोंके आस्वाद भी हमें प्राप्त होते हैं। चंद रचनाओंके इस अल्प पद्य साहित्यमें ऐसे विशद प्रतीक विधानकी देन, वाकई कवीश्वर श्रीआत्मानंदजी म.की तीव्र मेधा शक्ति एवं रसिक-सहृदयी कवि प्रतिभाकी परिचायक मानी जायेगी । बिम्ब विधानः-- काव्यके तात्त्विक तात्पर्य और प्रतिपाद्य अनुभूतियों एवं मानसिक क्रिया-कलापोंको अभिभावकके लिए ग्राह्य करवानेवाले माध्यमको "बिम्ब विधान' कह सकते हैं । पाश्चात्य साहित्यिकोंने बिम्ब रचनाको काव्यका मुख्य व्यापार माना है, जिससे कवि अपनी मानसकि या काल्पनिक सृष्टिका
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