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________________ सकते। इस तरह सभी दुर्नय वादियोंको मुंह तोड़ जवाब देते हुए गाते हैं“शुद्ध अशुद्ध नास अविनाशी, निरंजन निराकारो। स्याद्वाद मत सगरो नीको, दुर्नय पंथ निवारो..... सुन ज्ञानी... सप्तभंगी मत दायक जिनजी, एक अनुग्रह कीजो। आतम रूप जिसो तुम लाधो, सो सेवकको दीजो..... सुनज्ञानी....(८२) इसके अतिरिक्त भी “सप्तभंगी गर्भित तुम वाणी, भव्य जीव सुखदायी....” अथवा “तत्त्व सरधान पंचंगी संमत कह्यो, स्याद्वादे कर बैन साचो" आदि अनेक स्थानोमें कविवरने स्याद्वादकी उत्कृष्टताके गुणगान किये हैं। द्वितीय उपहार है 'कर्मवाद'। उसके भी अनेक स्वरूपोंके विविध प्रकारसे कदम कदम पर वर्णन किया है, यथा-कर्मसंसृति, कर्मका स्वरूप, कर्मका सानिध्य (बंध), कर्मका सत्त्व एवं शक्ति (फल प्रदाता रूपमें), कर्मसे स्वायत्तत्ता (मुक्तावस्था) आदि । 'कर्म' शब्दको सामान्यतः व्यवहारमें क्रिया अथवा कार्यके अर्थ रूपमें प्रयुक्त किया जाता है। अन्य दर्शनकारोंने भी कर्मको तकदीर-भाग्य-ईश्वरकृपादिके रूपमें स्वीकार किया है, लेकिन जैन दर्शनने उसका सम्बन्ध कार्मण वर्गणा-जो हमारे आस-पासके परिवेशमें अत्यन्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल स्कंधोंके रूपमें स्थित है-उनसे युक्त माना है। सर्वज्ञ प्रणीत जैनधर्ममें कर्म-संसृतिका स्वरूप जिस प्रकार विवरित, वर्गीकृत एवं विश्लेषित किया गया है, इतना विशद व व्यवस्थित निरूपण किसी भी धर्म या दर्शनमें, कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होता है। कर्म संबंधी अथेति-सर्वांगीण-स्वतंत्र सर्वेक्षण रूपमें कर्मके प्रकार (प्रकृति), प्रभाव-प्रक्रियादि प्रभूत परिचर्चा कर्मग्रन्थ, कम्म-पयड़ी, पंचसंग्रह, प्रज्ञापनादि सूत्र ग्रन्थोमें विस्तृत रूपमें पायी जाती है। . कर्म स्वतंत्र रूपसे तो जड़ होनेसे अक्रिय है, लेकिन आत्माकी राग-द्वेषादि परिणतिके कारण मिथ्यात्वअविरति-प्रमाद-कषाय-योगके कारण सारासार प्रवर्तनसे, अस्थिर आत्म प्रदेशोंमें, प्रकंपन होने लगता है। वही चंचलता एक आकर्षण उत्पन्न करती है जो उन भावानुरूप यथायोग्य कार्मण पुद्गलोंको आकृष्ट करके क्षीर-नीरवत् आत्मसात कर लेती है जिसे 'कर्मबंध' संज्ञा दी जाती है। जो स्वप्रकृत्यानुसार अपने स्वभावको यथासमय-यथाप्रमाण प्रदर्शित करते हुए जीवको अपने प्रभावसे वेष्टित कर लेते हैं। इसी भावनाको लेकर सूरिराजने राग भैरवीमें जो सूर प्रवाहित किये हैं - “आश्रव अति दुःख दाना रे चेतन आश्रव अति दुःखदाना......." मुख्य रूपसे मन-वचन-कायाके तीन योगोंसे, मैत्र्यादि भावना वासित जीव पुण्यानुबंधी पुण्य (शुभकर्म) अथवा पाप पिंडरूपी मिथ्यात्वादिसे ग्रस्त होने पर पापानुबंधी शुभाशुभ कर्मोंका उपार्जन करता रहता है। उसे नसीहत देते हुए कविराज आगे ललकारते हैं“योग, कषाय, परमादा, विरति-रहित अज्ञाना रे। मिथ्या दरसनी आरत रौद्री, पाप करे सुखहाना रे...... चेतन...... आत्म सदा सुहंकर निर्मल, जिन वच अमृत पाना रे, करके जीवे सदा निरंगी, पामे पद निरवाना रे.... चेतन..M३) इसी प्रक्रियाको विस्तृत रूपमें प्रस्तुत करते हुए 'बारह भावना स्वरूप का वर्णन करते हैं “हिंसा-झूठ-चोरी-गोरी-कोरीको रे रंग रस्यो; क्रोध-मान-माया-लोभ-खोभ घेरो देतु है। राग-द्वेष ठग भेष, नारी राज भत्त देस कथन करन कर्म भ्रमका सहेतु है ।" इस मुक्तककी इन प्रथम दो पंक्तियोंमें ही कर्मबंधके पांच हेतु-पांच अव्रत, (अविरति), चार कषाय, रागद्वेषादिकी परिणति रूप मिथ्यात्व, चार विकथा रूप प्रमाद, और योगोंका अति संक्षेपमें-सूत्रात्मक शैलीमें लयबद्ध-वर्णानुप्रासादि अलंकारकी सजावटके साथ प्रस्तुत करना सिद्ध कवित्व शक्तिका प्रमाण है। परवर्ती दो पंक्तियोंमें कर्मबंधकी प्रक्रिया एवं दुःखप्राप्ति रूप कर्मफल वर्णित है "चंचल तरंग अंग भामिनिके रंग चंग उद्गत विहंग मन अति गर भेतु है। मोहमें मगन जग आतम धरम ठग, चले जग मग जिये ऐसे दुःख लेतु है ।" (८४) इस कर्मबंध प्रक्रियाके प्रधान हेतुभूत आत्माके जो परिणाम होते हैं, उसे जैनदर्शनमें शुभाशुभ लेश्याभिधानसे पहचाना जाता है, 'लेश्या के छ प्रकार होते हैं-कृष्ण, नील, कापोत (तीन अशुभ) और तेजो, पद्म, (57) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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