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________________ जीवनांधकारको दूर करनेवाले 'महामुनि पूरगुनी 'के-गुणवंत गुरुके स्वरूपका वर्णन संक्षिप्त फिर भी सुंदर बन पड़ा है "महा मुनि पूर गुनी निज गुन सेत चुनी मार बार मार धुनि सुनी सुख सेजको ज्ञान ते निहार छार दाम धाम नार पार सातवीस गुण धार तारक सेहजको पुगल भरम छोर नाता ताता जोर तोर आतम धरम जोर भयो महातेजको जग भ्रमजाल मान ज्ञान ध्यान तार दान सत्ताके सरूप आन मोक्षमें रहेन (ज) को । (८०) तत्त्वत्रयीके 'धर्मीतत्त्व' देव और गुरुके अभिज्ञापन के पश्चात् तृतीय धर्मतत्व का निरूपण विस्तृत रूपसे किया गया है। वितंडाके वर्धक विभिन्न वादोंके इस युगने जैन दर्शनने मुख्य दो वाद विश्वको अलौकिक उपहार रूप-वितंडासे मुक्ति के लिए दिये हैं- (१) स्याद्वाद और (२) कर्मवाद स्थाद्वादकी रोशनी वर्तमान जीवनको आलोकित करती है जबकि कर्मवादकी अभूतपूर्व आभा भूत और भाविको उज्ज्वल बनाती है। स्याद्वाद अर्थात् सापेक्ष दृष्टिसे सर्वांगिण निदर्शन । स्याद्वादकी दृष्टिभेदमें भी अभेदता, रूपमें भी रुपातीतता, शाश्वतमें भी अशाश्वतताका दर्शन करती है। व्यवहारसे जो रूपं दृष्टिगत होता है निश्चयसे वही रुपातीत भी है; निश्चयसे जो शाश्वत है वह व्यवहारमें नाशवंत भी अनुभूत होता है। अतः वर्तमानमें दृश्यमान ही संपूर्ण दर्शन नहीं है लेकिन इससे पूर्ववर्ती परवर्ती अनेकशः दर्शनसे युक्त दृश्य ही सत्य और संपूर्ण दर्शन होता है। अन्य भी सापेक्षिक स्वरूपोंकी कथंचित् रूपमें प्ररूपणा स्याद्वाद - स्यात्'के सहारे ही शक्य है। इसके सात, सातसौ आदि असंख्य भेदोपभेद न्यायशास्त्रोंमें विश्लेषित किये गये है “सिद्धमत स्याद्वाद कथन करत आद भंग के तरंग साद सात रूप भये हैं; अनेकंत माने संत कथंचित् रूप ठंत मिथ्यामत सब हंत तत्व चीन लये है। नित्यानित्य एकानेक सासलीन बीतीरेक भेदने अभेद टेक भव्यभव्य ये है शुद्धाशुद्ध चेतन अचेतन मूरती रूप रूपातील उपचार परमके लये हैं "(2) स्याद्वाद जैन दानशालाकी अनुपम बक्षिस है; स्याद्वाद सर्वांगिण शीलधर्मकी सुवास है: स्याद्वाद तात्त्विक तप साधनाका तवाज़ा (सम्मान) है; स्याद्वाद भगवंतसे भावयुक्त भेंट है। स्याद्वाद सर्व वितंडा-विवादोंका दाना दुश्मन है तो सभी सापेक्षित नय प्रमाणोंका जिगरी दोस्त है। ऐसे अद्भूत फिर भी गहन सिद्धान्तको काव्य रूप देकर अत्यन्त सहजता और सरलता युक्त भावप्रवण प्रवाहितताके साथ प्रस्तुत करना उत्तम कवित्व शक्तिको सूचित करता है उस प्रकृष्ट शक्तिके कारणही 'स्यात्' शैली एवं सप्तभंगीसे निरूपित अनेकान्तके सिद्धान्त स्वरूपका रोचक वर्णन श्री मुनिसुव्रत स्वामीकी स्तवना करते करते गाया है “श्री मुनिसुव्रत हरिकुलचंदा, दुरनय पंथ नसायो । स्याद्वाद रस गर्भित वानी, तत्त्व स्वरूप जनायो- सुन ज्ञानी जिन वाणी रस पीजो अति सन्मानी......* आगे एकांतवादी कैसे और क्यों परस्पर उलझते है और उस उलझनको स्याद्वाद कैसे सुलझाता है उसका तादृश चितार वर्णित किया है "बंध मोक्ष एकांते मानी, मोक्ष जगत उच्छेदे । उभय नयात्मभेद गहीने तत्त्व पदार्थ वेदे नित्य अनित्य एकान्त गहीने, अरथ क्रिया सब नांसे उभय स्वरूपे वस्तु विराजे, ज्ञानी.... Jain Education International करता भुगता वाही ज दृष्टे, एकांते नहीं थावे, निश्चय शुद्ध नयात्म रूपे, कुण करता भुगतावे... सुन ज्ञानी... (८१) अन्य दर्शनकारोंने ईश्वरको जगत्कर्ता और सुख-दुःख फलप्रदाता बना दिया है । वे परमेश्वरको कलंकित करते हैं। कर्मका कर्ता और भोक्ता दोनों स्वयं आत्मा ही है इसकी प्ररूपणा करके परमेश्वरकी वीतरागताको सिद्ध किया है; क्योंकि जिसमें वीतरागता नहीं वह रागी-द्वेषी आत्मा कभी भगवद् स्वरुपी नहीं हो 56 सुन ज्ञानी...... स्याद्वाद इम भासे.....सुन For Private & Personal Use Only ****** www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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