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________________ या भवताप दूर करनेवाले, “जन्म महोत्सव गावो रे, भवताप निवारी......." इसके अतिरिक्त ऐसे अनेक भावोंके निरूपण विविध स्तवन, स्तुति, तीर्थ वंदनादि रचनाओमें, विशेषतया 'द्वादश भावना के सज्झाय संग्रहमें जीवमात्रकी और प्रमुखतया मानव भवधारी जीवकी अनित्यता, अशरणता, एकत्व एवं अन्यत्व अर्थात् 'एगोऽहं, नस्थि मे कोई', की भावना, आत्माके कर्मबंधके कारण, संवर-निर्जरा रूप उपाय आदि द्वारा यथोचित रूपमें हुआ है। उनके ऐसे भाव भरपूर काव्यावतरणोंको आज भी उतनी ही लगन और आत्मीयतासे अकेलेमें या समूहमें, एक बार और अनेकबार गाया जाता है और रसानंदका अनुभव करके जीवनके चरम सत्योंको, धर्म-राहोंको और उपदिष्ट सीखोंको अंगीकार करनेके प्रयत्न करते हुए अनेक भक्तजन भव साफल्यका लाभ ले रहे हैं। दार्शनिकता:-हमें विदित ही है कि अक्षर-वर्ण एक एक अलग हों तब उसका कोई स्पष्ट अभिप्राय नहीं निकल सकता-वह निरर्थक-सा होता है; लेकिन वे ही वर्णोको एकाधिक रूपमें परस्पर सम्बन्धित कर दिया जाय तब अमूल्य शब्दोंका निर्माण होता है और उन्हें सार्थकता प्राप्त होती है। जैसे मिट्टीका पिंड न आकर्षक होता है न मूल्यवान, पर किसी सिद्धहस्त कलाकारकी ऊँगलियोंकी करामात उसे पिंडसे प्रतिमा बना देती है-लोग उन्हें प्रणिपात करते हैं-पूजा करते है-प्रणिधान भी करते हैं। वैसे ही वर्णों एवं शब्दोंका, विशिष्ट व्यक्ति द्वारा उपयुक्त एवं विलक्षण संगठन या ग्रथन होने पर उनसे भरपूर भावयुक्त अद्भूत कृति साकार हो उठती है और चिरस्मरणीय बन जाती है। ___ ठीक उसी प्रकार श्री आत्मानंदजी म.सा.की कृतिमें वाणीके लिए कृपावान वह बावनी-'बावन वर्ण'"उपदेश बावनी" बनकर भव्य जीवोंके लिए आत्म कल्याणकी पथप्रदर्शिका बन गयी हैं। जिसमें जीवके लिए विशेष उपादेय तत्त्वत्रयी-देव-गुरु-धर्म-तत्त्व-का उपयुक्त निरूपण हुआ है। उन्हीं वर्गों से व्युत्पन्न 'ॐ' बीजमंत्र माना जाता है। सभी धर्मोमें उसे अग्रीम स्थान मिला है। भक्तहृदय कविराजके अंतरमें भी उस प्रणवमंत्र 'ॐ'कारका रव-गुंजन-चिंतन-मनन अनवरत होता रहता था, न रोक सकती थी उसे दुन्यवी आधि-व्याधि-उपाधि, न हटा सकती थी लौकिक सुखशीलता-शान-शौकत और सिद्धिकी चकाचौंध। अ+अ+आ+3+म् वर्णोसे बना ऐसा प्रणवमंत्र-ॐका स्वरूप, सत्त्व और सार एवं उसके प्रति श्रद्धासे समर्पण-सुंदर शैलीमें, सवैया इकतीसा छंदमें बद्ध करके 'उपदेश बावनी'के मंगलाचरणके रूपमें प्रस्तुत किया है। "ॐ नीत पंच मीत समर समर चित्त अजर अमर हित नित चित्त धरीए; सूरि उज्झा, मुनि पुज्झा, जानत अरथ गुज्झा मनमथ मथन कथन सु न ठरीए । बार आठ षट्तीस पणवीस सातवीस सत आठ गुण ईश माल बीच करीए; ऐसो विभु ॐ कार बावन वरण सार आतम आधार पार तार मोक्ष वरीए।” (७८) ॐ स्थित पंच परमेष्ठि, अ-अरिहंत, अ=अशरीरी (सिद्ध), आ आचार्य, उ=उपाध्याय, म्=मुनि-के गुणबारह, आठ, छत्तीस पचवीस और सत्ताईस = एकसौआठ-की स्तवना करके आतम आधार और मोक्ष दातारके रूपमें चित्रित किया गया है। तत्पश्चात् "ॐ कार स्थित जैन दर्शनके अद्वितीय अनेकान्तवादकी उत्कृष्टताका परिचय करवाते हुए अष्टादश दूषण रहित और बारह गुण सहित, वशमें की हुई पांचो इन्द्रिय और निर्मल मनके धारक अरिहंत देवके स्वरूप वर्णन द्वारा साकार वीतराग तथा सर्व कर्मरहित और अनंत गुणसहित, अजर-अमरअज-अलख-अमल-अचल-अशरीरी, मुक्ति नगरीके सादि अनंत निवासी सिद्ध परमात्माके स्वरूप वर्णन द्वारा निराकार वीतरागकी एकरूपताका एक ही मुक्तकमें अनुपम वर्णन किया है। जिसके गुणगान करते करते ‘समर अमरवर गनधर नगवर', थक जाते हैं। "नथन करन पन हनन करम घन धरत अनघ मन मथन मदनको, अजर अमर अज अलख अमल जस अचल परम पद धरत सदनको ।" (७९) इसी तरह नरेन्द्रों देवेन्द्रोंके नमस्करणीय, भगवद् भजनमें और कर्मवन कटनमें मग्न, जन-जनके (55) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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