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________________ लेकिन कविके लिए यह तोड़-मरोड़ क्षम्य मानी गई है। काव्यमें व्याकरणादिसे अधिक महत्त्व भावोंके प्रबन्धका होता है। भाव तो काव्यकी आत्मा है। जैसे बिना आत्माके शरीर-देह मृतपिंड़ कहलाता है-चाहे वस्त्राभूषण या पुष्पादिसे उसकी कितनी ही सजधज़ क्यों न की जाय-निरर्थक ही मानी जाती है। वह किसीको आनंदित नहीं कर सकती: वैसे ही बिना भावके काव्यमें कैसी भी अलंकार-ध्वनि-प्रतीक-बिम्ब या छदोकी अजनबी सजावट क्यों न हों निरर्थक जैसी ही लगती है। भाव, काव्यको चैतन्यता, संवेदनशीलता और विराटता बक्षता है। भाव ही काव्यका माहात्म्य चिरस्थायी बना सकता है। इन्हीं भावोंका आस्वाद सुरीश्वरजीकी रचनाओमें हम अनुभव कर सकते हैं। छोटे छोटे दोहोंमें भी कैसे गूढ़ भावोंकी भरमार है ! ब्रह्मचर्य जैसे नाजूक विषयको उसके अपूर्व और अनुपमेय महत्त्वको वर्णित करते हुए इन दोहोंमें प्रस्तुत किया है। “कामकुंभ सुरतरु मणि, सब व्रत जीवन सार । कामित फलदायक सदा, भवदुःख भंजन हार ॥ तारागणमें उडुपति, सुरगणमें जिम इंद । विरति सकल मुख मंड़ना, जय जय ब्रह्म थिरिंद ॥७३ चरम फल मुक्ति प्रदाताके भावसे सर्व जीवोंका परम हितस्वी 'विनय' गुणका स्वरूपालेखन देखें“गुण अनंतको कंद है, विनय जीवन सिंगार । विनय मूल जिनधर्म है, विनयिक धन अवतार || इस तरह विनयको सर्वाधिक-सर्वोत्कृष्ट-सर्वश्रेष्ठ दर्शाकर कविराज वर्तमान विश्वके जीवोंको जीवनका श्रेयस्कर पथ प्रदर्शित करते हैं। "विद्या विनयेन शोभते- आदि नीति- वाक्योंसे विनय और विद्याका संबंध स्पष्ट ही है। गुरुदेव भी अपूर्व-नव्य-ज्ञानाभ्यासको तरणि (सूर्य)की उपमा देकर उज्ज्वल जीवनयापनकी राह इंगित करते हैं. “भवि वंदो अपूर्व ज्ञान तरणिने..... ज्ञान अपूर्व जब ही प्रकटे, शुद्ध करे चित्त धरणीने.....भवि.....(७५) जैनधर्ममें मोक्षमार्गके साधन रूपमें चार भावोंकी प्ररूपणा की गई है-दान-शील-तप-भाव। इनमें दानको प्रथम स्थान दिया गया क्योंकि दान-कर्मबंधनकी वृत्ति-प्रवृत्तिको रोकता है। दान-धन-दान' मूर्छा ममत्वादि राग सैन्यको और "अभय दान' जीव मात्रके प्रति द्वेष-सैन्यको पराजित करनेमें मुख्य सेनापतिका कर्तव्य निभाता है। ऐसे दानका-सुपात्र दानका स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं “दान तो अभंग दीजे, मन धरी रंग । खान तो अमर अज सुख तो अभंग; गौतम रतन सम पात्र सुरंग.... दान तो कनक समान मुनि, पात्र उतंग। देशविरति पात्र रौप्य मध्यम सुमंग......दान तो...." सर्व जीवोंके प्रति निर्व्याज-निर्हेतुक-निर्मल वात्सल्य-नीर-निधिको बहानेवाले, एकांत महोपकारी देवाधिदेवके केवल दर्शन मात्रसे क्या असर होता है, उसका प्रसन्न भाव भरपूर वर्णन देखें “बढयो जी मम भाग, भाग, निरख जिन बिम्बको.... मिट गइ फिकरी करम अघ आज, जिन जस अखिया जगत शिरताज...बढ़योजी.... सटक गइ ममता कुगुरु भइ लाज, पाखंड गड (गढ़) खड़नी जिणंद किरयाज....." भटक मरी जड़ता आनंद खिड़यो आज, जिणंद वामानंदको, आतम जगराज......बढ़यो.....” (७७) यहाँ फिकरा चिंता)का मिटना, ममताका सटकना और जड़ताका भटकना ऐसी मार्दवताके साथ मधुर शैलीमें प्रस्तुत हुआ है कि परिणामतः आनंद खिल उठता है। ऐसे अरिहंत भगवंतके जन्म समय उनके पुण्यातिशयके कारण जीवोंको जो सुखका अनुभव मिलता है वह अलौकिक होता है। महापापी जीव-जो नारकीमें बिना क्षणांतर-निरंतर दुःख-वेदना और अंधकारमय भयंकर त्रास भुगतते हैं उनको भी क्षणिक सुख-प्रदाता श्री अरिहंतदेवोंके जन्म महोत्सवके उल्लासपूर्वक प्रवाहित आनंदका वर्णन कविवरने अपनी 'स्नात्र पूजा' कृतिमें ठाठसे किया है “शुभ लग्ने जिन जनमिया, त्रिभुवन भयो प्रकाश । नारकको सुख उपनो, भविजन पूरे आश ॥" अथवा “सुपन महोत्सव करो भवि रंगे, मुक्ति रमणी सुख लहो भवि चंगे ।" (54) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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